Ep-2: जन्म
त्रिशला माता गर्भ का अच्छी तरह जतन करने लगीं। गर्भकाल के दौरान मानोमाता पर गर्भस्थ शिशु की महानता का प्रतिबिंब पड़ रहा हो इस प्रकार त्रिशला माता केमन में ऊँचे स्तर की भावनाएँ-इच्छाएँ प्रकट हुईं।ऐसी इच्छाओं को दोहद कहा जाता है। त्रिशला माता को प्रकट होने वाले दोहद कुछ इस प्रकार थे : “चारों दिशाओं में कोई पशु-पक्षी न मरे, ऐसी अमारी (अहिंसा) की घोषणा करवाऊँ। गरीब-दीन-हीन को दान दूं तथा साधु-संतों की भक्ति करूँ। तीर्थंकर प्रभु की पूजा करवाऊँ।'
सिद्धार्थ राजा ने इन सारे दोहदों को अति उल्लासपूर्वक पूरा किया। धीरे-धीरे नौ महीने और साढ़े सात दिनों का गर्भ काल पूरा हुआ। उस समय खेतों में भारी मात्रा में धान की उपज हुई थी,पशु-पक्षी भी मंगल ध्वनि कर रहे थे, वायु अनुकूल रूप से बह रही थी। लोग भी सुकाल होने के कारण और वसंतोत्सव की क्रीड़ा में मग्न होने के कारण हर्ष व उल्लास से भरे हुए थे; तब चैत्र सुद तेरस के मंगल दिन, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चंद्र का योग होने पर, प्रसन्न वातावरण में आरोग्यवान त्रिशला माता आरोग्यवान पुत्ररत्न को जन्म देती है।
राजा सिद्धार्थ को जब पुत्र जन्म की बधाई मिली, तब उनके अंग-अंग में आनंद नहीं समा रहा था। राजा ने बधाई देने वाली दासी को इतना दान दिया कि उसको पूरे जीवन के लिए दारिद्र से मुक्ति मिल जाए। बंदियों को बंदीगृहों से मुक्त कर दिया, कर्जदारों के कर्ज माफ कर दिए। दस दिनों तक राजा ने पूरे नगर में भव्य महोत्सव का आयोजन किया। तीर्थकरों की भक्ति, पूज्यों की पूजा, स्वजनों का सत्कार और दीनदु:खियों को दान - लगातार दस दिन तक यह चलता रहा। देवलोक से इन्द्र तथा देवी- देवताओं ने भी आकर बालकुँवर के जन्म का उत्सव मनाया।
पश्चात् सभी स्नेहीजनों, जातिजनों, परिवारजनों, अधिकारियों, मित्रों आदि की उपस्थिति में पूर्व में किए हुए संकल्प के अनुसार नए जन्मे बालकुँवर का “वर्धमान' नामकरण किया गया। वर्धमान कुमार के जन्म से पूर्व सिद्धार्थ राजा की दो संतानें थीं कुमार नंदीवर्थन तथा कुमारी सुदर्शना। इस कुटुंब ने जैनों के तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की परंपरा द्वारा श्रावकधर्म प्राप्त किया था। बालकुँवर वर्धमान जन्म से ही अपार बल, वीर्य एवं तेज के धारक थे। उनका देह पूरी तरह लक्षणवान् और तपे हुए स्वर्ण जैसा कांति भरा था।