Ep-7: वरसीदान दीक्षा
" जिसको जो चाहिए हो, वह लेने के लिए पधारो। हमारे नगर के राजकुमार वर्धमान सब कुछ देने के लिए तैयार हैं, दे रहे हैं।” समग्र क्षत्रियकुंड नगर में और आसपास के प्रदेशों में राजा नंदीवर्धन द्वारा नियुक्त सेवक यह घोषणा कर रहे थे। यह घोषणा सुनकर लोग चौंक उठे और दौड़ें दौड़ें राजमहल के बाहर के प्रांगण में आने लगे। देरी से आने वाला व्यक्ति पहले से आए व्यक्ति से पूछता है : “अरे भाई! अचानक हमारे इन लाड़ले राजकुमार ने इस प्रकार दान देना क्यों शुरू किया है?” सामने से उत्तर मिला : “सुना है कि एक वर्ष बाद हमारे ये राजकुमार समग्र संसार छोड़ने वाले हैं। इसलिए उन्होंने अभी से इस प्रकार छोड़ना शुरू किया है।”
लोग अपना क्रम आने पर वर्धमान कुमार के पास पहुँचते और उनकी भरी हुईअंजलि से पर्याप्त सोना मोहर अपनी अंजलि में भर कर धन्य हो जाते। वर्धमान कुमार की मधुर मुखाकृति तथा झरते वैराग्य को देख कर ही लोगों का मन भर जाता था। धन लेने के लिए आने वालों को भी धन के विषय में संतोष हो जाता था। यह वरसीदान एक वर्ष तक चला। दूर-दूर के गाँवों से भी लोग आते और इन महान त्यागी के दर्शन से निहाल हो जाते थे। अंतत: कार्तिक वदि दसमी की तिथि आई। उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चंद्रमा का योग हुआ। महाराज नंदीवर्धन ने शानदार शोभायात्रा का आयोजन किया। चंद्रप्रभा नामक शिबिका में बैठकर वर्धमान कुमार क्षत्रियकुंड के राजमहल से निकले, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के ३०-३० वर्ष बिताए थे। निकलने के बाद फिर कभी वो वहाँ पीछे मुड़कर नहीं देखने वाले थे।
शोभायात्रा क्षत्रियकुंड नगर के बाहर ज्ञातखंड नामक उद्यान में आकर रूकी।वर्धमान कुमार शिबिका से उतरे। उन्होंने शरीर पर धारण किए हुए अलंकार और कीमती वस्त्रों सहित सब कुछ छोड़ दिया। उन्होंने मस्तक तथा दाढ़ी-मूछ के बाल भी हाथ से खींच कर निकाल दिए, जिसको 'लोच' कहते हैं। उस समय देवराज इन्द्र ने भगवान महावीर के कंधे पर एक वस्त्र स्थापित किया, जिसे देवदृष्य कहते हैं। जो आत्माएं उनसे पूर्व परम अवस्था को प्राप्त कर चुकी थीं, ऐसी सिद्धात्माओं को भगवान महावीर ने नमस्कार किया और स्वयं पाँच महाव्रतों की भीष्मप्रतिज्ञा का स्वीकार किया। फिर शुरू हुई एक ऐसी साधना, जिसकी कल्पना भी सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन है,साधुता की साधना।