Ep-21: श्री भिनमाल तीर्थ
[ पुरातन क्षेत्र, भोजनशाला की सुविधा ]
तीर्थाधिराज: श्री पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, पंच धातु से निर्मित (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थस्थल: भिनमाल शहर मध्य, शेठवास में।

प्राचीनता: गुजरात की प्राचीन राजधानी का मुख्य नगर यह भिनमाल एक समय खूब प्रसिद्ध था। यह नगर किसने बसाया था, उसका निश्चित इतिहास उपलब्ध नहीं । पौराणिक कथाओं के अनुसार इसका नाम सतयुग में श्रीमाल, त्रेता युग में रत्नमाल, द्वापर युग में पुष्पमाल व कलियुग में भिनमाल रहा ।श्रीमाल व भिनमाल नाम लौक प्रसिद्ध रहे। इस नगरी का अनेकों बार उत्थान-पतन हुआ ।
जैन मन्दिरों के एक खण्डहर में वि. सं. 1333 का शिलालेख मिला है, जिसमें बताया है कि श्री महावीर भगवान यहाँ बिचरे थे। यह बहुत बड़ा संशोधन का कार्य है, क्योंकि जगह-जगह वीरप्रभु इस भूमि में विचरे थे ऐसे उल्लेख मिले है। संशोधकगण इस तरफ ध्यान दें तो ऐतिहासिक प्रमाण मिलने की गुंजाइश है।
विक्रम की पहली शताब्दी मे आचार्य श्री वज्रस्वामी भी श्रीमाल (भिनमाल) तरफ बिहार करने के उल्लेख मिलते है ।एक जैन पट्टावली के अनुसार वीर निर्माण सं. 70 के आसपास श्री रत्नप्रभसूरिजी के समय श्रीमाल नगर का राजकुमार श्री सुन्दर व मंत्री श्री उहड़ ने यहाँ से जाकर ओसियाँ बसाया था, जिसमें श्रीमाल से अनेकों कुटुम्ब जाकर बसे थे । एक और मतानुसार श्रीमाल के राजा देशल ने जब धनाढ्यों को किले में बसने की अनुमति दी तब अन्य लोग असंतुष्ट होकर देशल के पुत्र जयचन्द्र के साथ विक्रम सं. 223 में ओसियाँ जाकर बसे थे । अतः इससे यह सिद्ध होता है कि ओसियाँ नगरी उस समय बसी हुयी थी, जब ही वे वहाँ जाकर बस सके होंगे ।
किसी जमाने में इस नगरी का घेराव 64 कि. मी था । किले के 84 दरवाजे थे, उनमें 84 करोड़पति श्रावकों के 64 श्रीमाल ब्राह्मणों के व 8 प्राग्वट ब्राह्मणों के घर थे । सैकड़ों शिखरबंध मन्दिरों से यह नगरी रमणीय बनी हुई थी ।
श्री जिनदासगणी द्वारा वि. सं. 733 में रचित 'निशीयचूर्णि' में सातवीं, आठवीं शताब्दी पूर्व से यह नगर खूब समृद्धिशाली रहने का उल्लेख है ।श्री उधोतनसूरिजी द्वारा वि. सं. 835 में रचित 'कुवलयमाला' ग्रंथ में, ऐसा उल्लेख है कि श्री शिवचन्दगणी विहार करते हुए जिनवन्दनार्य यहाँ पधारे व अत्यन्त प्रभावित होकर प्रभु चरणों में यहीं रह गये।
सातवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक प्रायः सारे प्रभावशाली आचार्य भगवन्तों ने यहाँ पदार्पण करके इस शहर को पवित्र व रमणीय बनाया है, व अनेकों अनमोल जैन साहित्यों की रचना करके अमूल्य खजाना छोड़ गये हैं जो आज इतिहासकारों व शोधकों के लिए एक अमूल्य सामग्री बनकर विश्व को नयी प्रेरणा दे रहा है ।
लगभग दसवीं, ग्यारहवीं शताब्दी में इस नगर से 18000 श्रीमाल श्रावक गुजरात की नयी राजधानी पाटण व उसके आसपास जाकर बस गये, जिनमें मंत्री विमलशाह के पूर्वज श्रेष्ठी श्री नाना भी थे ।
निकोलस उफ्लेट नाम का अंग्रेज व्यापारी ई. सं. 1611 में यहाँ आया जब इस शहर का सुन्दर व कलात्मक किला 58 कि. मी. विस्तार वाला था, ऐसा उल्लेख है । आज भी 5-6 मील दूर उत्तर तरफ जालोरी दरवाजा, पश्चिम तरफ सांचोरी दरवाजा, पूर्व तरफ सूर्य दरवाजा व दक्षिण तरफ लक्ष्मी दरवाजा है। विस्तार में ऊंचे टेकरियों पर प्राचीन ईंटों, कोरणीदार स्तम्भों व मन्दिर के कोरणीदार पत्थरों के खंडहर असंख्य मात्रा में दिखायी देते हैं ।
आज यहाँ कुल 11 मन्दिर हैं जिनमें यह मन्दिर प्राचीन व मुख्य माना जाता है । प्रतिमाजी के परिकर पर वि. सं. 1011 का लेख उत्कीर्ण है । यह प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त हुई थी। भूगर्भ से प्राप्त यह व अन्य प्रतिमाएँ, जालोर के गजनीखान के आधीन थीं । वह इन प्रभु प्रतिमाओं को रखने से मानसिक क्लेश का अनुभव कर रहा था। आखिर उसने प्रतिमाएँ श्री संघ के सुपुर्द की, जिन्हें संघवी श्री वरजंग शेठ ने भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर विक्रम सं. 1662 में स्थापित करवाई। उस अवसर पर गजनीखान ने भी 16 स्वर्ण कलश चढ़ाये थे, ऐसा श्रीपुण्यकमल मुनि रचित 'भिनमाल-स्तवन" में उल्लेख है ।
विशिष्टता: पौराणिक कथाओं में भी इस नगरी का भारी महत्व दिया है। भगवान श्री महावीर यहाँ बिचरे थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। पहली शताब्दी में आचार्य श्री वज्रस्वामी यहाँ दर्शनार्य पधारे थे। श्री उहड मंत्री व राजकुमार सुन्दर ने यहीं से जाकर ओसियाँ नगरी बसायी थी ।
'शिशुपालवध महाकाव्य' के रचयिता कवि श्री मेघ की जन्मभूमि यही है। ब्रह्मगुप्त ज्योतिषी ने 'स्फुट आर्य सिद्धान्त' ग्रन्थ की रचना यहीं पर सातवीं शताब्दी में की थी। वि. की आठवीं शताब्दी में यहाँ कुलगुरुओं की स्थापना हुई । तब 84 गच्छों के समर्थ आचार्य भगवन्त यहाँ विराजमान थे ।
शंखेश्वर गच्छ के आचार्य श्री उदयप्रभसूरिजी ने विक्रम सं. 791 में प्राग्वट ब्राह्मणों को व श्रीमाल ब्राह्मणों को यहीं जैनी बनाया था ।आचार्य श्री सिद्धर्षिजी ने प्रख्यात 'उपमितिभवप्रपंच कथा' की रचना विक्रम सं. 992 में यहीं की थी ।
श्री वीरगणी की जन्मभूमि यही है, जो कि प्रख्यात पण्डित थे । उन्होंने गुर्जर नरेश चामुंडराज को अपनी अलौकिक शक्ति से प्रभावित किया था ।श्री सिद्धसेनसूरिजी ने 'सकल तीर्थ स्तोत्र' में इस तीर्य की व्याख्या की है। इस तीर्थ की कीर्ति बढ़ानेवाले ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जिनका यहाँ शब्दों में वर्णन करना असंभव है । प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णीमा के दिन ध्वजा चढ़ाई जाती है।
अन्य मन्दिर: इसके अतिरिक्त गाँव में कुल 15 मन्दिर है । ज्यादातर मन्दिर प्रायः चौदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक के हैं। इनमें गाँधीमूता वास में स्थित श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर की पुनः प्रतिष्ठा श्री हीरविजयसूरिजी के सुहस्ते वि.सं. 1634 में हुई थी।
कला और सौन्दर्य: इतनी प्राचीन नगरी में कलापूर्ण अवशेषों आदि की क्या कमी है। शहर कलापूर्ण अवशेषों के खण्डहरों से भरा है । हर मन्दिर में कई प्राचीन कलापूर्ण प्रतिमाएँ हैं ।
मार्गदर्शन: यहाँ का भीनमाल रेल्वे स्टेशन 1 कि. मी. है। गाँव के बस स्टेण्ड से भी मन्दिर 1 कि. मी. है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । जालोर सिरोही व जोधपुर आदि स्थानों से सीधी भिनमाल के लिए बस सर्विस है। यह स्थल जालोर से मान्डोली, रामसेन होते हुए लगभग 70 कि. मी. है । मान्डोली यहाँ से 30 कि. मी. व भाण्डवपुर तीर्थ लगभग 50 कि. मी. दूर है ।

सुविधाएँ: ठहरने के लिए दो धर्मशालाएँ है, (निकट के महावीरजी मन्दिर व किर्ती स्तंम में) जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है ।
पेढ़ी: श्री पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर तपागच्छीय ट्रस्ट, हाथियों की पोल,
पोस्ट: भिनमाल - 343029. जिला : जालोर, (राज.), फोन : 02969-21190