Ep-6: श्री ओसियाँ तीर्थ
[ पुरातन क्षेत्र, भोजनशाला की सुविधा, चमत्कारी क्षेत्र या मुनियों की तपोभुमि, कलात्मक ]
तीर्थाधिराज: श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वर्ण वर्ण, लगभग 80 से. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल: ओसियाँ गाँव के मध्य ।

प्राचीनता: इस नगरी के प्राचीन नाम उपकेशपट्टण, उरकेश, मेलपुरपत्तन, नवनेरी आदि रहने के उल्लेख मिलते हैं। विक्रम की चौदहवीं सदी में रचित उपकेशगच्छ्पष्टायली के अनुसार विक्रम की चार शताब्दी पूर्व लगभग वीर निर्वाण सं. 70 में श्री पार्श्वनाथ भगवान के सातवें पाटेश्वर आचार्य रत्नप्रभसूरीवरजी अपने पाँच सौ शिष्यसमुदाय सहित यहाँ पधारे थे । तब यहाँ के राजा उपलदेव व मंत्री उहड़ थे। राजा उपलदेव व मंत्री उहड ने आचार्य श्री से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । राजा उपलदेव द्वारा इस मन्दिर का निर्माण करवाकर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी के सुहस्ते इस प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है। किसी समय यह एक समृद्धशाली विराट नगरी थी। इस नगरी का क्षेत्रफल बहुत बड़ा था। लोहावट व तिंवरी आदि इसके मोहल्ले थे ।
श्री हीर उदयन के शिष्य श्री नयप्रमोद द्वारा वि. सं. 1712 में रचित 'ओसियाँ वीर स्तवन' में इस प्रतिमा को संप्रति राजा द्वारा निर्मित बताया है। सदियों तक यह प्रतिमा भूगर्भ में रही। जब उहड़ मंत्री ने यह नगरी बसाई तब आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी का यहाँ पदार्पण हुआ व उहड़ मंत्री ने आचार्य श्री से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । उस समय यह प्रतिमा भूगर्भ से प्रकट हुई थी, जिसे मन्दिर का नव निर्माण करवाकर वि. सं. 1017 माघ कृष्णा 8 के दिन प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है ।
'ओसवाल उत्पत्ति' शीर्षक के हस्तलिखित पत्र में उहड़ मंत्री द्वारा वि. सं. 1011 में ओसियाँ बसाने का व वि. सं. 1017 में मन्दिर बनवाने का उल्लेख है ।
पुरातत्व-वेत्ताओं के अनुसार यहाँ की शिल्पकला आठवीं सदी की मानी जाती है ।
कोरटा के इतिहास में वीर प्रभु के निर्वाण के 70 वर्ष पश्चात् आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी द्वारा एक ही मुहूर्त में कोरटा व ओसियाँ नगरी में जिन मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है। भीनमाल के इतिहास में भी राजकुमार उपलदेव व मंत्री द्वारा इसी काल में यहाँ उपकेशनगर बसाने का उल्लेख है ।
नय प्रमोद द्वारा रचित 'ओसियाँ वीर स्तवन' के अनुसार अगर यह नगरी ही विक्रम की 11 वीं सदी में बसाई गई होती तो उसके सात सौ वर्ष पूर्व संप्रति राजा के यहाँ आने का व प्रतिमा निर्मित करवाने का कारण ही नहीं बनता। आठवीं सदी की शिल्पकला भी यहाँ कैसे उपलब्ध होती ?
अतः यह सिद्ध होता है कि यह नगरी वीर प्रभु के निर्वाण के लगभग 70 वर्ष पश्चात् बस चुकी थी। व इस मन्दिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ था । समय-समय आवश्यक जीर्णोद्धार होते ही है। उसी भाँति आठवीं सदी में जीर्णोद्धार हुआ होगा । लेकिन यह प्रतिमा वही प्राचीन मानी जाती है, जो भगवान महावीर के 70 वर्षों पश्चात् भूगर्भ से प्रकट हुई थी। अभी भी जीणोद्धार का कार्य चालू है, जो कुछ वर्षों पूर्व प्रारंभ किया गया था ।
विशिष्टता: भगवान महावीर के 70 वर्षों पश्चात् श्री पार्श्वनाथ भगवान के सातवें पाटेश्वर आचार्य श्री रत्न-प्रभुसूरीश्वरजी ने यहाँ के राजा उपलदेव, मंत्री उहड़ व अनेकों शूरवीर राजपूतों को जैन-धर्म अंगीकार करवाया एवं ओशवंश की स्थापना करके उन्हें ओशवंश में परिवर्तित किया था। यह ओशवंश का उत्पत्ति स्थान रहने के कारण यहाँ की मुख्य विशेषता है। आज ओशवंश के श्रावकगण भारत में ही नहीं, दुनिया के हर कोने में बसे हुए हैं व प्रायः सारे समृद्धिशाली है, जो सदियों से धर्म प्रभावना व परोपकार के अनेकों कार्य करते आ रहे हैं। यह सब शुभ समय में प्रकाण्ड आचार्य द्वारा किए स्थापना का मूल कारण है ।
ओशवाल समाज का हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की पवित्र भूमि पर ओशवंश के संस्थापक द्वारा प्रतिष्ठित भगवान महावीर के दर्शन करने का अवसर न चुकें ।
मन्दिर में श्री पुनिया बाबा के नाम से विख्यात अति चमत्कारिक श्री अधिष्ठायक देव की प्रतिमा नाग-नागिनी के रूप में विराजित है। यह प्रतिमा भी मूल प्रतिमा के समय की मानी जाती है। कहा जाता है यहाँ की अधिष्ठायिका श्री चामुण्डादेवी को भी आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी ने प्रतिबोधित करके सम्यक्त्वी बनाकर श्री सच्चियायका माता नाम से अलंकृत किया, जिसकी ही दिव्य शक्ति से गौ-दुग्ध एवं बालू से भगवान महावीर की प्रतिमा बनी व आचार्य श्री द्वारा प्रतिष्ठित की गई, जो अभी विद्यमान है ।
प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला 3 को वार्षिक मेला लगता है, जब हजारों भक्तगण भाग लेकर प्रभु भक्ति का लाभ लेते हैं ।
अन्य मन्दिर # इस मन्दिर से लगभग एक कि. मी. दूर गाँव के पूर्व में टेकरी पर दादावाड़ी है जहाँ आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी आदि की चरण पादुकाएँ विराजित हैं। श्री सच्चियाय माताजी का प्रसिद्ध मन्दिर भी यहाँ से लगभग एक कि. मी. दूर हैं।
कला और सौन्दर्य: शिल्प और कला की दृष्टि से ओसियाँ विश्व में प्रसिद्ध है। पत्थरों पर खुदी हुई यहाँ की कलात्मक प्रतिमाएँ अद्वितीय हैं । भगवान महावीर का मन्दिर व अन्य मन्दिर अपनी विशालता, कलागत विशेषता एवं सौन्दर्य के कारण विश्व-विख्यात है । रंग-मण्डप में स्तम्भों पर नाग-कन्याओं के दृश्य एवं दिवालों पर देवी-देवताओं के दृश्य अति सुन्दर ढंग से अंकित हैं। इसके अतिरिक्त देहरियों पर भगवान नेमिनाथ का जीवनचरित्र, भगवान महावीर का अभिषेक-उत्सव एवं गर्भहरण का दृश्य बड़ा ही सजीव चित्रण किया हुआ है। अष्ट पहलू मण्डप में आचार्य श्री द्वारा अपने साधु एवं श्रावकों को उपदेश देने के चित्र
अंकित है। नृत्य मण्डप के गुंबज में नृत्यकाएँ साज के साथ नृत्य करती हुई अति आकर्षक रमणीय मुद्रा में अंकित हैं। मन्दिर की भमती में प्रसिद्ध तोरण की कारीगरी एवं बनावट अति आकर्षक है । यह स्थल पुरातत्व दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण, स्थान रखता है । देश-विदेश से भी शोधकर्तागण यहाँ की प्राचीनता व शिल्पकला की शोध हेतु यहाँ आते रहते हैं ।
मार्ग दर्शन: ओसियाँ रेल्वे स्टेशन जो जोधुपर-जैसेलमेर रेल मार्ग में स्थित है, मन्दिर से लगभग 1 कि. मी दूर है। स्टेशन पर टेक्सी व आटो की सुविधा है। यह स्थान जोधपुर-फलोदी मुख्य सड़क मार्ग पर है। जोधपुर यहाँ से 60 कि. मी. व फलोदी लगभग 65 कि. मी. दूर हैं। यहाँ का बस स्टेण्ड लगभग 1- 2.5 कि. मी. दूर है। मन्दिर तक पक्की सड़क है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है । यहाँ से जोधपुर, जयपुर, अहमदाबाद, सुरत, बीकानेर, नागौर, फलोदी व जैसलमेर जाने के लिए बसें मिलती है ।
सुविधाएँ: मन्दिर के अहाते में ही पुरानी धर्मशाला के अतिरिक्त निकट ही सर्वसुविधायुक्त श्री रत्नप्रभसूरि ओसवाल नगर धर्मशाला भी हैं, जिसके प्रांगण में बसे व कारें भी ठहर सकती है। यहाँ पर भोजनशाला व नास्ते की भी सुविधा है।

पेढ़ी: शेठ श्री मंगलसिंहजी रतनसिंहजी देव की पेढ़ी ट्रस्ट, पोस्ट ओसियाँ 342 303. जिला: जोधपुर, प्रान्त: राजस्थान, फोन: 02922-74232, 74251.