Ep-3: बाल्यावस्था
घटना कुछ ऐसी बनी कि वर्धमान कुँवर के माता-पिता ने सामान्यजन सुलभ बालक के लगाव से प्रेरित होकर, वर्धमान कुँवर को विद्यालय में शिक्षा के लिए भेजा। परंतु कुंवर तो जब गर्भ में थे, तब से विशिष्ट ज्ञान के धारक थे। फिर भी अपनी जानकारी की घोषणा उन्होंने कभी नहीं की। कहावत भी है न : 'हीरा मुख से न कहे, लाख हमारा मोल।'
विद्यालय में पहले दिन ही लोगों को वर्धमान कुँवर के विशिष्ट ज्ञान की जानकारी हो जाए, इसलिए देवराज इन्द्र ब्राह्मण का रूप लेकर वहां आए। विद्यालय के पंडितवर्य को स्वयं जिन प्रश्नों को लेकर संशय था ऐसे प्रश्न उस ब्राह्मण ने वर्धमान कुँवर से पूछे। वे प्रश्न व्याकरण संबंधी थे। क्योंकि सभी विद्याओं की पेटी है भाषा और भाषा की सूक्ष्मता व्याकरण से आती है।
वर्धमान कुँवर ने तो फटाफट उन प्रश्नों का उत्तर दे दिया और तब वहां जैनेन्द्र व्याकरण की रचना हुई। उस समय पंडितवर्य के उद्गार थे : “वास्तव में ! इस बालक की गंभीरता के सामने तो सागर भी एक छोटे कुंड के समान है। सही बात ही है न! कॉँसे की आवाज ज्यादा और कीमत कम होती है, जबकि सोने की आवाज नहीं होती,लेकिन कीमत अपार होती है।”
इस प्रकार, उस समय वहाँ उपस्थित सभी लोगों को वर्धमान कुँवर में रहीहुई विशिष्ट क्षमताओं की जानकारी हुई। वर्धमान कुँवर की आयु भले ही बालक की थी, परंतु व्यवहार से झलकती समझदारी तो एक प्रौढ़ का भी मस्तक झुका दे, ऐसी थी। माता-पिता तो क्या, अपने किसी मित्र को भी उनसे तनिक भी तकलीफ न हो, ऐसी सतर्कता वर्धमान कुँवर में थी।
स्वयं राजकुल से होने के बावजूद भी मित्रों पर रौब झाड़ना या हुक्म चलाना, ये सब वर्धमान कुँवर के रोम में ही नहीं था। वो बोलते थे तो मधुरता और नग्रता छलकती थी और साथ-साथ उनकी हढ़ता और निडरता भी शिखर को छू ले ऐसी थी। यह तालमेल भाग्य से ही देखने को मिलता है। उनकी वीरता का एक प्रसंग इस प्रकार है।