Ep-20: श्री स्वर्णगिरि तीर्थ
[ पुरातन क्षेत्र, भोजनशाला की सुविधा,कलात्मक ]
तीर्थाधिराज: श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 100 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थस्थल: जालोर शहर के समीप स्वर्णगिरि पर्वत पर जालोर दुर्ग में ।

प्राचीनता: यह स्वर्णगिरि प्राचीन काल में कनकाचल नाम से विख्यात था। किसी समय यहाँ अनेकों करोड़पति श्रावक रहते थे। तात्कालीन जैन राजाओं ने 'यक्षवसति' व अष्टापद आदि जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । उल्लेखानुसार विक्रम सं. 126 से 135 के दरमियान राजा विक्रमादित्य के वंशज श्री नाहड़ राजा द्वारा इसका निर्माण हुआ होगा। ऐसा प्रतीत होता है ।
श्री मेरुतुंग सूरिजी द्वारा रचित 'विचार श्रेणी' में व लगभग तेरहवीं सदी में श्री महेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा रचित 'अष्टोत्तरी तीर्यमाला' में भी इसका उल्लेख मिलता है । 'सकलार्हत् स्तोत्र' में भी इसका कनकाचल के नाम से उल्लेख है । कुमारपाल राजा द्वारा वि. सं. 1221 में 'यक्षवसति' मन्दिर के उद्धार करवाने का उल्लेख है ।
स्वर्णगिरि में कुमारपाल राजा द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर 'कुमारविहार' की प्रतिष्ठा सं. 1221 में श्री वादीदेवसूरिजी के सुहस्ते सम्पन्न होने का उल्लेख है। वि. सं. 1256 में श्री पूर्णचन्द्रसूरिजी द्वारा मन्दिर में तोरण की प्रतिष्ठा, वि. सं. 1265 में मूलशिखर पर स्वर्णदण्ड व वि. सं. 1268 में संस्कृत भाषा में 7 द्वात्रिशिका के रचयिता श्री रामचन्द्रसूरिजी द्वारा प्रेक्षामध्यमण्डप पर स्वर्णमय कलश की प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । वि. सं 1681 में स्वर्णगिरि पर सम्राट अकबर के पुत्र जहाँगिर के समय में यहाँ के राजा श्री गजसिंहजी के मंत्री मुहणोत श्री जयमलजी द्वारा एक जिन मन्दिर बनवाने व अन्य सारे मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । मंत्री श्री जयमलजी की धर्मपत्नियां श्रीमती सरूपद व सोहागद द्वारा भी अनेकों प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है, जिनमें से कई प्रतिमाएँ विद्यमान है।
श्री महावीर भगवान के इस मन्दिर का जीर्णोद्धार मंत्री श्री जयमलजी द्वारा करवाकर श्री जयसागर गणिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है। कहा जाता है यही 'यक्षवसति' मन्दिर है जिसका श्री कुमारपाल राजा ने भी पेहले उद्धार करवाया था । अन्तिम उद्धार श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी के उपदेश से सम्पन्न हुआ था ।
स्वर्णगिरि की तलहटी में जाबालिपुर (जालोर) भी विक्रम की लगभग दूसरी सदी में बसे होने का उल्लेख मिलता है। विक्रम सं. 835 में जाबालिपुर में श्री आदिनाय भगवान के मन्दिर में आचार्य श्री उद्योतनसूरिजी द्वारा 'कुवलयमाला' ग्रंथ की रचना पूर्ण करने का उल्लेख है । उस समय यहाँ अनेकों मन्दिर थे । उनमें अष्टयपद नाम का एक विशाल मन्दिर या । इसका वर्णन आबू के लावण्यवसहि मन्दिर में वि. सं. 1296 के शिलालेख में भी है।
वि. सं. 1293 में राजा श्री उदयसिंहजी के मंत्री दानवीर, विद्वान व शिल्प विद्या में निष्णांत, श्री यशोवीर द्वारा श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में अद्भुत कलायुक्त मंडप निर्मित करवाने का उल्लेख है।
खतरगच्छ गुर्वावली के अनुसार राजा श्री उदयसिंह के समय वि. सं. 1310 के वैशाख शुक्ला 13 शनिवार स्वातिनक्षत्र में श्री महावीर भगवान के मन्दिर में चौबीस जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा महोत्सव अनेकों राजाओं व प्रधान पुरुषों के उपस्थिति में महामंत्री श्री जयसिंहजी के तत्वाधान में अति ही उल्लासपूर्वक सम्पन्न हुआ था । उस अवसर पर पालनपुर, वागड़देश आदि जगहों के श्रावकगण इकट्ठे हुए थे ।
वि. सं. 1342 में श्रीसामन्तसिंह के सान्निध्य में अनेकों जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है । वि. सं 1371 ज्येष्ठ कृष्णा 10 के दिन आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के विधमानता में दीक्षा व मालारोपण उत्सव हुए ऐसा उल्लेख है। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी द्वारा यहाँ के मन्दिरों को भारी क्षति पहुंची व कलापूर्ण अवशेष आदि मस्जिदों आदि में परिवर्तित किये गये जिनके आज भी कुछ नमूने नजर आते हैं। कुछ पर प्राचीन जैन शिलालेख भी उत्कीर्ण हैं। वि. सं. 1651 में यहाँ मन्दिरों के होने का उल्लेख मिलता है । आज यहाँ कुल 12 मन्दिर है ।
विशिष्टता: वि. की दूसरी शताब्दी से लगभग आठारहवीं शताब्दी तक यहाँ के जैन राजाओं, मंत्रियों व श्रेष्ठियों द्वारा किये धार्मिक व सामाजिक कार्य उल्लेखनीय है जिनका वर्णन करना शब्दों में संभव नहीं ।
यहाँ के उदयसिंह राजा के मंत्री यशोवीर ने वि. सं. 1287 में मंत्रीश्वर श्री वस्तुपाल तेजपाल द्वारा शोभनसूत्रधारों से निर्माणित आबू के लावण्यवसहि मन्दिर के प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था । उस समय अन्य 84 राजा, अनेकों मंत्री व प्रमुख व्यक्ति हाजिर थे । यशोवीर शिल्पकला में निष्णात विद्वान होने के कारण इस अद्भुत मन्दिर में भी 14 भूले बताई थी, जिसपर उनकी विद्वता व अन्य गुणों की भारी प्रशंसा हुई थी । वि. सं 1741 में यहाँ के मंत्री मुणहोत जयमलजी के पुत्र श्री नेणसी जोधपुर के महाराजा श्री जसवंतसिंहजी के दीवान थे, जिन्होंने अपनी दिवानगिरि में भारी कुशलता दिखायी थी, जिसपर 'नेणसीजी री ख्यात' की रचना हुई जो कि आज भी जनसाधारण में प्रचलित है । इस तीर्थ के तीर्थोंउद्धारक प. पू. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की भी यह साधना भूमि हैं ।
अन्य मन्दिर: इसके अतिरिक्त स्वर्णगिरि पर्वत पर किले में 4 मन्दिर एक गुरु मन्दिर व इसकी तलहटी जालोर में 12 मन्दिर अभी विधमान है। किले पर चौमुखजी मन्दिर व पार्श्वनाथ मन्दिर प्राचीन हैं, जिन्हें अष्ठापदावतार मन्दिर व कुमार विहार मन्दिर भी कहते हैं । जालोर में श्री नेमीनाथ भगवान के मन्दिर में
वि. सं. 1656 में प्रतिष्ठित अकबर प्रतिबोधक श्री विजयहीरसूरीश्वरजी की गुरुमूर्ति है । नवनिर्मित श्री नन्दीश्वर द्वीप मन्दिर अति ही सुन्दर बना हुआ है।
कला और सौन्दर्य: समुद्र की सतह से लगभग 1200 फुट ऊँचे पर्वत पर 2.5 कि. मी. लम्बे व 1.25 कि. मी. चौड़े प्राचीन किले के परकोटे में मन्दिरों का दृश्य अति ही सुहावना लगता है, जो कि पूर्व सदियों की याद दिलाता है। यहाँ मन्दिरों में अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ व कलात्मक अवशेष आज भी दिखायी देते हैं ।
मार्गदर्शन: यहाँ से भाण्डवपुर तीर्थ 56 कि. मी. राणकपुर लगभग 100 कि. मी. नाकोड़ाजी तीर्थ लगभग 100 कि. मी. जोधुपर 140 कि. मी. व मान्डोली लगभग 35 कि. मी. दूर है। इन सभी जगहों से बस व टेक्सी की सुविधा है। किले पर स्थित इस मन्दिर से तलहटी 2.5 कि. मी. व तलहटी से जालोर रेल्वे स्टेशन 3 कि. मी. है जहाँ से तलहटी तक आने के लिए आटो व टेक्सी का साधन उपलब्ध है। पहाड़ पर वयोवृद्ध यात्रियों के जाने के लिए डोली का साधन है ।
सुविधाएँ: ठहरने के लिए गाँव में कंचनगिरि विहार धर्मशाला व नन्दीश्वर द्वीप मन्दिर की धर्मशाला है, जहाँ पर बिजली, पानी, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध हैं। दुर्ग पर भी मन्दिर के निकट ही भोजनशाला सहित सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला व मुनि भगवन्तों के लिए उपाश्रय की सुविधा है ।
पेढ़ी: श्री स्वर्णगिरि जैन श्वेताम्बर तीर्थ, (जालोर दूर्ग) कार्यालय :- कचंनगिरि विहार धर्मशाला पुराने बस स्टेण्ड के सामने।
पोस्ट: जालोर - 343 001. जिला: जालोर, प्रान्त : राजस्थान,
फोन: 02973-32316 (दूर्ग आफिस) 02973-32386 (कंचनगिरि विहार आफिस)