Ep-4: भगवान श्री महावीर के 27 भव
भगवान श्री महावीर के 27 भव
भूमिका- जैन दर्शन व जैनतत्वज्ञान की आधारशिला पूर्वभाव-जन्म है | यदि यह न माने तो धार्मिक अथवा
आध्यात्मिक सभी मान्यताएँ और व्यवस्थाएँ टूट जाएगी और उसके लिए की जाने वाली साधना भी आवशयक
हो जायेगी | पुर्नजन्म या जन्मांतर इसीलिये ही अच्छे जन्म के लिए अच्छी साधना आवश्यक है |
यही साधना-आराधना ( गतिमान और आयुष्य कर्म का क्षय कराकर ) जन्मांतर का सदा के लिये अन्त लाकर,
अनन्त सुख के स्थानस्वरूप सिद्धि को प्राप्त कराती है |
प्रत्येक आत्मा शाश्वत है | अत: उसका आदि या अन्त होता ही नहीं है | उसका विविध योनियो में परिभ्रमण अनन्त
काल से होता आया है | भगवान महावीर की आत्मा भी मिथ्यात्व अज्ञानिक कर्म के पराधीन होकर भवचक्र में घूम
रही थी | इसमें नयसार नामक भव में जैन निग्रंथ मुनि का संसर्ग हुआ | धर्मोपदेश सुनने से सत्य ज्ञान का प्रकाश उदित
हुआ, जिसे जैन दर्शन में 'सम्यग-दर्शन' कहा जाता है | यह दर्शन ही मोक्ष जा बीज होने के कारण परम्परा से यह मोक्ष
फल को प्राप्त करता है |
आत्मिक विकास में कारणरूप सम्यग दर्शन की प्राप्ति जिस भव से हुई, उसी भव से भवों की गणना प्रारम्भ करने की
प्रथा जैन दर्शन में है | यहा छोटे-छोटे सामान्य भवों को छोड़कर महावीर जन्म तक के प्रसिद्ध मुख्य २७ भवों की ही गणना
की गई है |
यह सूची इस विश्व के मंच पर जीव शुभाशुभ कर्मो के उपार्जन से कैसे-कैसे स्वरूप ग्रहण करता है,
उसका कुछ परिचय प्रदान कारेगी |
| क्रमांक | भव |
|---|---|
| १ | नयसार (गाम का मुखिया) |
| २ | प्रथम सौधर्म देवलोक मे देव |
| ३ | मरिधि राजकुमार (संयम ग्रहण) |
| ४ | पंचम ब्रह्मलोक में देव |
| ५ | कौशिक ब्राह्मण |
| ६ | पुष्पमित्र ब्राह्मण |
| ७ | प्रथम सौधर्म देवलोक मे देव |
| ८ | अग्निध्रोत ब्राह्मण |
| ९ | द्वितीय-ईशानदेवलोक मे देव |
| १० | अग्निभूति ब्राह्मण |
| ११ | तृतीय सनत्कुमर-देवलोक मे देव |
| १२ | भारध्वाज |
| १३ | चतुर्थ माहेन्द्र देवलोक में देव |
| १४ | स्थावर ब्राह्मण |
| १५ | पंचम ब्रहमदेवलोक में देव |
| १७ | सप्तम महाशुक्रदेव-लोक में देव |
| १८ | त्रिपृष्ट वसुदेव |
| १९ | सप्तम नरक मे नारकी |
| २० | सिंह |
| २१ | चतुर्थ नरक में नारकी |
| २२ | मनुष्यभव (अनामी) (संयम ग्रहण) |
| २३ | प्रियमित्र-चक्रवर्ती (संयम ग्रहण) |
| २४ | सप्तम महाशुक्र देवलोक में देव |
| २५ | नन्दन राजकुमार (संयम ग्रहण) |
| २६ | दशवें प्राणत देवलोक में देव |
| २७ | वर्धमान-महावीर(अन्तिम भव) |
२७ भव में से - २, ४, ७, ९, ११, १३, १५, १७, २४, २६, येँ दश भव देवलोक
में देवरूप से | १९, २१, ये दो भव नरक में नरकीय रूप से | २० वाँ भव तिर्यच गति में पशु-सिंह रूप का और १, ३, ५, ६, ८, १०, १२, १४, १६,१८,
२२, २३, २५, २७, ये १४ भव मनुष्य ब्राह्मण और बाद में त्रिदण्डी होने के समजे चाहिये |
३, १६, २२, २५, इन चारो ही बाव में राजकुमार थे |
इन चारो ही भावो वाले व्यक्तियों ने एक ही भव में संयम-चरित्र ग्रहण किया था | २३ वें भव के अंतर्गत महाविदेह में चक्रवर्ती हुए और १८ वाँभव वसुदेव का हुआ |
तीर्थंकर होने का पुनयनामकर्म २५ वें नन्दन मुनि के भव में बीशस्थानकादि तप की आराधना की आराधना द्वारा बद्ध किया-निकाचित किया और वह
२७ वें भव में उदित होने पर तीर्थंकर रूप से जन्म प्राप्त किया |
२७ भव में १/३ भाग देवलोक का और उससे कुछ अधिक मनुष्यगति का है|
नयसार की कथा श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायो के प्राकृत-संस्कृत चरित्रों में विविधरूप में द्रष्टिगोचर होती है |