भगवान महावीर के बारे में जानकारी

Ep-3: भौगोलिक परिचय

भौगोलिक परिचय

 

श्रमण भगवान महावीर सतत विचरणशील थे। भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर, उन्होंने जन-जन के मन में त्याग-निष्ठा और संयम-प्रतिष्ठा पैदा की। आगम निर्युक्ति, चूर्णि, भाष्य व प्राचीन चरित्र ग्रन्थों में भगवान महावीर के विहार के कुछ संकेत उपलब्ध होते हैं। इन्हीं के आधार पर इस ग्रन्थ में उनके विहार और वर्षावासों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है।  

यह सत्य है कि भगवान महावीर के समय के जिन नगरों, गाँवों और देशों के नाम उपलब्ध होते हैं, आज उनके नामों में बहुत परिवर्तन हो चुका है।  

- उस समय जिन नगरों में वैभव अठखेलियाँ कर रहा था, आज वहाँ दरिद्रता का साम्राज्य है।  
- जहाँ नव्य-भव्य प्रासाद चमक रहे थे, आज वहाँ खण्डहर आंसू बहा रहे हैं।  
- कई स्थलों पर ध्वंसावशेष तक उपलब्ध नहीं है।  
- कुछ नगर आज भी पुराने नामों से विश्रुत हैं।  
- कई नगरों की अवस्थिति कहाँ थी, इसका भी सही पता नहीं है।  

पुरातत्ववेत्ताओं ने कई स्थलों के सम्बन्ध में गहन अन्वेषणा की है। इन्हीं शोध के आधार पर हम भगवान महावीर के भौगोलिक क्षेत्रों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे पाठकों को सही स्थिति का परिज्ञान हो सके। 

 

अंग आलंभिका कनखल आश्रमपद
अच्छ (अत्स्य) उज्जयिनी कनकपुर
अनार्यदेश उत्तरकोसल कयलि समागम
अपापा उत्तरवाचाला कयंगला
अयोध्या उत्तरविदेह कर्णसुवर्ण कोटिवर्ष
अवन्ती उन्नाण (उन्नाक) कर्मार ग्राम
अस्थिकग्राम उपनन्दपाटक कलंबुका
अहिच्छत्ता उल्लुकातीर कलिंग
आमलकप्पा ऋजुवालुका काकंदी
आलभिका ऋषभपुर काम्पिल्य
कालायसंनिवेश तोसलिगांव महापुर
काशी थूणाकसन्निवेश महासेनउद्यान
कुण्डपुर दक्षिणवाचाला माणिभद्र चैत्य
कुंडाकसन्निवेश दशार्णपुर मालव
कुमाराकसन्निवेश दूपितलाश चैत्य मिथिला
कुरु दृढ़ भूमि मिंढिया
कुरुजांगल नंगलागांव मृगग्राम
कूपियसन्निवेश नन्दिग्राम मेंढियगाव
कूर्मग्राम नालन्दा मोकानगरी
केकय पत्तपालक मोराकसन्निवेश
कोटिवर्ष पाञ्चाल मौर्यसन्निवेश
कोल्लाकसन्निवेश पावा राजग्रह
कोसला पालकग्राम लोहार्गला
कौशाम्बी पुरिमताल वत्स
क्षितिप्रतिष्ठित पूर्णकलश वर्धमानपुर
गंगा पूर्णभद्र चैत्य वाणिज्यग्राम
गंडकी पृष्ठचम्पा बालुकाग्राम
गुणशील पेढालउघान विजयपुर
गोकुल पोतनपुर विशाखा
गोव्वरगांव पोलासपुर वीतभय
ग्रामाकसन्निवेश प्रतिष्ठानपुर वीरपुर
चन्दनपादप उद्यान बंग वैशाली
चन्द्रावतरण चैत्य बनारस शालिशीर्ष
चम्पा ब्राह्मणग्राम श्रावस्ती
चेदि भंगि श्व़ेताम्बिका
चोराकसंनिवेश भदिया सानुलट्ठिठ्यग्राम
छम्माणि भदिलनगरी सिंधुदेश
जम्बूसंद भोगपुर सुरभिपुर
जंभियगांव मगध सुवर्णखल
ज्ञातखण्डवन मधुरा सुवर्ण वालुका
तंबायसन्निवेश मद्दनासन्निवेश सुंसुमारपुर
ताम्रलिप्ति मलयगांव सुह्रा
तिन्दुकोधान मलयदेश हस्तिशीर्ष
तुनिकंसनिवेश मल्लदेश हस्तिशीर्षनगर
तुगिंया नगरी

 

 

अंग

अंग एक प्राचीन जनपद था, भागलपुर से मुंगेर तक फैले हुए भू-भाग का नाम अंग देश । प्रस्तुत देश की राजधानी चम्पापुरी थी जो भागलपुर से पश्चिम में दो पर अपस्थित थी। कनिॅघम ने भागलपुर से २४ मील दूर पर पत्थर घाटा पहाड़ी के सन्निकट चम्पानगर या चम्पापुरी की अवस्थिति मानी है। यह गंगातट पर स्थित है। प्राचीनयुग में चम्पा अत्यधिक सुन्दर व समृद्ध नगर था। वह व्यापार का केन्द्र था और दूर-दूर के व्यापारी व्यापारार्थ वहाँ आया करते थे। जातकों से ज्ञात होता है कि युद्ध के पूर्व राज्यसत्ता के लिए मगध और अंग में संघर्ष होता था। बुद्ध के समय अंग मगध का ही एक हिस्सा था। राजा श्रेणिक अंग और मग दोनों का ही स्वामी था । त्रिपिटक साहित्य में अंग और मगध को साथ में रखकर 'अंगमगधा' द्न्द् समाज के रुप मे प्रयुक्त हुआ है। चम्पेय जातक के अभिमातानुसार चम्पानदी अंग और मगध दोनों का विभाजन करती थी, जिसके पूर्व और पश्चिम में दोनों जनपद बसे हुए थे। अंग जनपद की पूर्वी सीमा राजप्रासादो की पहाड़ियां, उत्तरी सीमा, कौसी नदी और दक्षिण में उसका समुद्र तक विस्तार था। पाजिॅटर ने पूर्णिया जिले के पश्चिमी भाग को भी अंग जनपद के अन्तर्गत माना है।

सुमंगला विलासिनी में बताया है कि अंग जनपद में अंग (अंगा) नामक लोग रहा करते थे, अत: उनके नाम पर प्रस्तुत जनपद का नाम अंग हुआ । अंग लोगों ने अपने शारीरिक सौन्दर्य के कारण यह नाम पाया था। फिर यह नाम प्रदेश- विशेष के लिए रुढ हो गया।

महाभारत के अनुसार अंग नामक राजा के नाम पर जनपद का नाम अंग पडा।

रामायण के मन्तव्यानुसार महादेव के क्रोध से भयभीत होकर मदन वहाँ भागकर आया और यह अपने अंग को छोड़कर यहाँ अनंग हुआ था। मदन के अंग का त्याग होने से यह प्रदेश अंग कहलाया।

जैन साहित्य में अंगलोक का उल्लेख सिंहल (श्रीलंका) बब्बर, किरात,यवनदीप,आरबक,रोमक अलसन्द, (एलेक्जेण्डिया) और कच्छ के साथ आता है।

जैन ग्रंथो में अंग और चम्पा के साथ अनेक कथाओं का सम्बन्ध आता है। भगवान महावीर का यह मुख्य विहारस्थल था। भगवान के अनेक बार समवसरण चम्पा के ईशान दिशा भाग में पूर्णभद्र चैत्य में हुए थे और जहा पर सैकडों व्यक्तियों ने दीक्षाएँ ग्रहन कर जैनधर्म की विजय - वैजयन्ती फहराई थी।


अच्छ ( अत्स्य )

अच्छ की परिगणना साढे पच्चीस आर्य जनपदों में की गई है। यह देश मथुरा से ऊपर की ओर था । कितने ही विद्वानों का मन्तव्य है कि उसकी कहीं भी राजधानी प्राप्त नहीं है ।

उसकी राजधानी प्राचीन युग मे वरण थी। वरण का आधुनीक नाम बुलन्द शहर है। एक जैन शिलालेख में वरण का नाम 'अच्छनगर ' मिलता है। अच्छ नाम देश का है। यह संभव है की उसकी राजधानी वरण अच्छनगर रहा हो।

कल्पसुत्र में वारगमण और उच्चानगरी शाखा का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि यह प्रदेश जैन श्रमणों का केन्द्र था। महाभारत में भी इसका उल्लेख है।
चीनी साधु फाच्युआंग (424-453 ई.) नगरहार से विदेश जाते समय वरुण होकर गया था ।

अनार्य देश

आवश्यकचूर्णि मे आर्य और अनार्य जनपदो की व्यवस्था इस प्रकार की गई हे |

जिन प्रदेशों मे यौगलिक रहते थे जहा ' हाकार ' आदि नीतियो का प्रवर्तन हुआ था,वे प्रदेश आर्य और शेष अनार्य है | इस द्रष्टि से आर्य जनपदो की सीमा अत्यधिक बाद जाती है | तत्वार्थभाष्य-अभिमतानुसार चक्रवर्ती की विजयों मे उत्पन्न होने वाले मनुष्य भी आर्य होते थे | तत्वार्थवार्तिककार ने काशी - कौशल आदि जनपदो में उत्पन्न मानुष्यों को श्रेत्रार्य कहा है | जैन साहित्य मे साढ़े पच्चीस देशों में रहने वाले को श्रेत्रार्य कहा है | चूंकि साढ़े पच्चीस देशों में तीर्थंकर , चक्रवर्ती , राम (बलदेव) और कृष्ण (वसुदेव) की उत्पत्ति हुई, इसलिए इन्हे आर्य जनपद कहा गया है | जिन देशों मे तीर्थंकर प्रादि उत्पन्न हुए, उन्हे आर्य कहा गया है | उस समय लाढ या राढ की परिगणना अनार्य देशों में की जाती थी | यह देशवज्जभूमि (वज्र -भूमि ) और सुब्भभूमि ( सुहम्म ) नामक दो भागो में विभक्त था | इसकी राजधानी कोटी वर्ष थी |आधुनिक वानगढ़ ही प्राचीन कोटिवर्ष है | वह उत्तर राढ और दक्षिण राढ़ के रूप में दो भागों में विभक्त था | इसके बीच ने अजय नदी बहती थी | कितने ही वयक्ति भ्रम के लाढ को गुजरात का लाट मानते है, किन्तु यह उचित नहीं है | सत्य तथ्य यह है कि लाढ प्रदेश बंगाल में गंगा के पश्चिम में था | आजकल के तमलुक, मिदनापुर, हुगली और वर्दमान जिले इस प्रदेश के अंतर्गत थे | मुर्शिबाद जिले का कुछ भाग इसकी उत्तरी सीमा के अंतर्गत था | भगवान महावीर ने यहा पर विहार किया था, उन्हे अनेक कष्ट सहने पड़े थे | भगवान महावीर को यहा पर वसती मिलना भी दुर्लभ हो गया था | वे महावीर को कुत्तों से कटवाते थे | लाढ को सुब्भभूमि भी कहा गया है| बौद्ध साहित्य में इसका नाम 'लाल' और वैदिक साहित्य मे 'राढ़' मिलता है |इसका प्राचीन नाम सुंद भी है | भगवती सूत्र में सोलह जनपदों में संभूत्तर ( सुहोत्तर- सुहम्म के उत्तर में ) कि गणना की गई है |

कोटिवर्ष लाढ जनपद कि राजधानी थी। कोडिवारिसिया नामक जैन श्रमणों कि शाखा का उल्लेख प्राप्त होता है। गुप्तकालीन शिलालेखों में प्रस्तुत नगर का उल्लेख है। कोटिवर्ष की वर्तमान में पहचान दीनाजपुर जिले के बानगढ़ नामक स्थान से विद्वानों ने की है। संभव है इन्ही कारणों से इसे आर्य देश में भी गिना है।

प्रबोध चंद्रोदय नाटक अंक दो (११वीं शती) में इसके दो भागों का उल्लेख मिलता है— दक्षिण- राध, उत्तर-राध | अजय नदी के दक्षिणी भाग को दक्षिण-राध और उत्तरी भाग को उत्तर-राध कहा जाता है।

अपापा

पावा का नाम अपापा भी था | जब भगवान महावीर का वहाँ पर परिनिर्वाण हुआ तब अपापा पापा के नाम से विश्रुत हुई। विशेष विवरण हेतु 'पावा' देखिए।


अयोध्या

जैन साहित्य की दृष्टि से अयोध्या सबसे पहला नगर है। अयोध्या के निवासी विनीत स्वभाव के थे, इसलिए भगवान ऋषभ के समय इसका नाम विनीता पड़ा | यहा के लोग स्वभाव से सरल थे | अचल गणधर की और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की यह जन्मभूमि थी। अयोध्या का वर्णन करते हुए रामायणकार ने लिखा है- 'सरयू नदी के किनारे पर अवस्थित यह नगरी धन-धान्य से परिपूर्ण थी | सुन्दर वहाँ के मार्ग़ थे | अनेक शिल्पी और देश-विदेश के व्यापारी वहाँ बसते थे ।
यहाँ के लोग समृद्धिशाली, धर्मात्मा, पराक्रमी और दीर्घायु थे | अयोध्या के निवासियों ने विविध कलाओं में कुशलता प्राप्त की थी, इसलिए अयोध्या को कुशला-लोशला भी कहते थे |

वैशाली में जन्म लेने से जैसे भगवान महावीर का नाम वैशालीय है। वैसे ही भगवान ऋषभदेव ने कौशल में जन्म लिया, इसलिए कौशलीय कहलाये । कौशल के राजा प्रसेनजित का उल्लेख बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलो पर हुआ है |

बृहत्कल्प के अनुसार भगवान महावीर एक बार जब अयोध्या (साकेत) के सुभूमिभाग उद्यान में विहार कर रहे थे तब भगवान ने जैन श्रमणों के विहार की सीमा इस प्रकार नियत की थी - निर्ग्रंथ और निर्ग्रंथनी साकेत के पूर्व में अंग, मगध तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा (स्थानेश्वर) तक और उत्तर में कुणाला ( श्रावस्ती जनपद ) तक विहार कर सकते है | इतने ही क्षेत्र आर्य क्षेत्र है,इनके आगे नहीं | चूंकि इतने ही क्षेत्रों मे साधुओं के ज्ञान, दर्शन और चरित्र अक्षुण्ण रह सकते है |

महावीर और बुद्ध के समय अयोध्या का नाम साकेत अधिक प्रसिद्ध था। समय-समय पर उसके नाम परिवर्तित होते रहे हैं। कोशला, विनीता, इथ्याकृभूमि, रामपुरी साकेत, विशाखा आदि ।

प्राचीन काल में कौशल देश, उत्तर और दक्षिण- इन दो मार्गों में विभक्त था। इनका विभाजन सरयू नदी में हुआ था। दक्षिण कोल की राजधानी साकेत थी। यह सरयू के तट पर बसी हुई थी।

भगवान महावीर के समय साकेत के बाहर उत्तरकुरु नामक उथान था और पाशामृग नामक यक्ष का मन्दिर था। राजा का नाम मिश्रनंदी और रानी का नाम श्रीकान्ता था। भगवान महावीर यहाँ पर अनेक बार पधारे थे।

विज्ञों का मत है कि फैजाबाद से पूर्वोत्तर छ मील पर सरयू नदी के दक्षिण तट पर अवस्थित वर्तमान अयोध्या के समीप प्राचीन साकेत नगर था ।

अवन्ती

अवन्ती मालवा की राजधानी थी। दक्षिण पथ की यह मुख्य नगरी मानी जाती थी। भगवान महावीर के समय यहाँ का राजा चण्डप्रधोत था । चण्डप्रधोत की पट्ट रानी शिवादेवी और अंगारवती आदि रानिया भगवान महावीर की परम उपासिका थीं।

जब सम्राट् अशोक का पुत्र कुणाल यहाँ का सूबेदार हुआ तब अवन्ती जो उज्जैनी के नाम से प्रसिद्ध थी, उसका नाम कुणाल नगर रखा गया | कुणाल के पश्चात राजा सम्प्रति का राज्य हुआ। राजा सम्प्रति ने जैनधर्म के प्रचार करने के लिए अपने अनुचरों को दूर-दूर तक भेजा था। आर्य सुहस्ति अवन्ती पधारे थे।

आचार्या चणडरुद्र , भद्रकगुप्त, आर्यरक्षित तथा आर्या आषाड आदि जैन श्रमणों ने यहां पर विहार किया था। जैन श्रमणों को यहाँ पर कठोर परीषह भी सहन करने पड़ते थे।

आचार्य कालक ने राजा गर्दभिल्ल के स्थान पर ईरान के शाहों को बिठाया था। इसी अवन्ती में राजा विक्रमादित्य ने अपना राज्य स्थापित किया था | सिद्धसेन दिवाकर विक्रमादित्य की सभा के एक रत्न थे। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार सम्राट् चन्द्रगुप्त ने यहाँ आर्य भद्रबाहु से दीक्षा ग्रहण कर दक्षिण की यात्रा की थी।

किसी समय में अवन्ती में बौद्ध धर्म का अत्यधिक जोर था। उनके रहने के लिए अनेक विहार वहाँ पर बने हुए थे। यहाँ की मिट्टी काली होने से बुद्ध ने भिक्षुओ को स्नान करने और जूते पहनने की अनुमति दी थी।

अवन्ती व्यापार का प्रमुख केन्द्र थी। हुएनसांग के समय विध्या का भी यह प्रमुख केन्द्र था | ईस्वी सन् की सातवीं-आठवीं शताब्दी के पूर्व मालवा अवन्ती के नाम से विश्रुत था | आचार्य हेमचन्द्र के समय अवन्ती विशाल-पुष्पकरंडिनी और उज्जयिनी के नाम से प्रख्यात थी |
इसकी पहचान मालवा, निमाड़ और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों से की जाती है |

अस्थिक ग्राम

यह वज्जो देश के अन्तर्गत था। बौद्ध साहित्य में इसका नाम हत्थीगाम आया है | यह राजगृह से कुशीनारा वाले मार्ग के बीच में था और वैशाली से कुछ दूर था। भगवान महावीर ने अपना प्रथम वर्षावास यहाँ पर व्यतीत किया था और शूलपाणि यक्ष को प्रतिबोध दिया था। भगवान मोराकसन्निवेश से यहाँ पर पधारे थे और पुनः मोराक होकर वाचाला की ओर पधारे थे। इसका आधुनिक नाम हाथागांव है जो मुजफ्फरपुर जिले में है | मुजफ्फरपुर से बीस मील पूर्व हाथागांव के पास बागवती नदी है | सम्भव है वही नदी प्राचीनयुग में वेगवती नदी के नाम से प्रख्यात रही हो | यह गांव बसाढ से ३५ मील के लगभग दूर है।

बौद्ध साहित्य में आया हुआ हस्तिगाम और जैन बाङ्मय में आया हुआ 'अस्थिकगाम' ये दोनों एक ही हैं। उच्चारण भेद से ही अस्थिक का हत्थि हो गया है |

संस्कृत का अस्थि प्राकृत भाषा में अट्टी होता है और आगे चलकर हड्डी हो गया है। हत्यिगाम और अस्थिकग्राम में किचित् उच्चारण भेद है। पर दोनों ही साहित्य में उसे विदेह के अन्तर्गत वैशाली के सन्निकट माना है।

सोमवंशी भवगुप्त प्रथम के ताम्रपत्र में जिस हस्तिपद नामक स्थान का वर्णन है, वह संभवतः हत्थिग्राम है।"

ईस्वी सन् तीसरी शताब्दी तक हस्तिपद या हस्तिग्राम का अस्तित्व मिलता है। शैलेन्द्रवंशीय जावा, सुमात्रा, और मलयदेश के राजा बालपुत्रदेव जो नालंदा में महाविहार बनाना चाहते थे, उन्होंने पाल - वंश के राजा देवपाल के पास दूत प्रेषित किया और पांच गांवों की याचना की। देवपाल बौद्धधर्म का संरक्षक था, उसने बालपुत्र की प्रार्थना स्वीकार की और पांच गांव उन्हें सहर्ष समर्पित किये, उन गांवों की सूची में नातिका और हस्ति (हस्तिग्राम) का स्पष्ट उल्लेख है।

वैशाली से भोगनगर जाते हुए मार्ग में हस्तिग्राम आता था और वह बज्जि प्रदेश में अवस्थित था |

अस्थिक गांव का पहले नाम वर्धमान था | शुलपाणि यक्ष ने बहुत से मानवों को वहां पर मारा था। मानवों की बहुत हड्डियां यहाँ पर एकत्रित हो गई | अतः उसका नाम अस्थिक ग्राम पड़ा । अस्थि यानि हड्डी और ग्राम यानि समूह, इस प्रकार अस्थिक ग्राम का अर्थ हड्डियों का समूह है |

बर्धमान नाम के अनेक नगर थे, एक वर्द्धमान नगर प्रयाग और वाराणसी के मध्य में था ।

शाहजहांपुर से २५ मील पर बांसखेड़ा में एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसमें वर्द्धमान कोटि का वर्णन है। ई. पूर्व ६३८ में हर्षवर्द्धन ने यहां पर पड़ाव डाला था। यह वर्धमान कोटि आज दिनाजपुर जिले में वर्धमान कोटि के नाम से विश्रुत है। देवीपुराण में वर्धमान का उल्लेख बंग से अलग स्वतन्त्र देश के रूप में हुआ है। दांता के निकट वर्द्धमान का भी वर्णन आता है |

एक बर्द्धमान मालवे में भी था । एक बर्द्धमानपुर सौराष्ट्र में भी था। जहाँ पर १४२३ ई० में मेरुतुंग नाम के प्रसिद्ध जैन विद्वान ने प्रबन्धचिन्तामणि की रचना की थी, जिसका वर्तमान में बढवाण नाम है |

दीपवंश में एक वर्धमानपुर का उल्लेख है, जिसे बाद में वर्धमानभुक्ति या वर्धमान नाम से भी लिखा है, यह कलकत्ता से ६७ मील पर अवस्थित वर्दवान नगर था।

यह स्मरण रखना चाहिए कि जिसका पूर्व नाम वर्धमान था। वे इन सभी से पृथक् थे । वे विदेह देश से बाहर थे और भगवान महावीर ने जिस अस्थिक ग्राम में वर्षावास किया था, वह विदेह देश में था। उसका अपर नाम हस्तिग्राम भी था।

अहिच्छत्रा

अहिच्छत्रा को जैन साहित्य में जागल अथवा कुरुजांगल की राजधानी कहा है। यह नगरी शंसवती, प्रत्यगुरथ और शिवपुर के नाम से भी प्रसिद्ध थी। इसकी परिगणना अष्टापद, ऊर्जयन्त ( गिरनार ), गजान्ग्रपदगिरि, धर्मचक्र (तक्षशिला) और रथावर्त नामक तीर्थों के साथ की गई है | कहा जाता है कि धरणेन्द्र ने यही पर अपने फण से भगवान पार्श्व की रक्षा की थी | अहिच्छत्रा के निवासियों का चम्पा के साथ व्यापार भी होता था | हुएनसांग के समय यहाँ पर नागहृद था, जहाँ पर तथागत बुद्ध ने नागराज को उपदेश दिया था |

वर्तमान में अहिच्छत्रा बरेली जिले में बरेली से बीस मील पश्चिम की ओर है | आजकल के रामनगर के सन्निकट पूर्वकाल में अहिछत्रा थी।

आमलकप्पा (आमलकल्पा)

आमलकप्पा यह पश्चिम विदेह में श्वेताम्बी के समीप थी। बौद्ध साहित्य में वुल्लिय राज्य की राजधानी 'अलकप्प' ही आमलकप्पा (आमलकल्पा) होनी चाहिए | आमलकप्पा के बाहर अम्बसाल चैत्य था, जहाँ पर भगवान महावीर का समवसरण लगा था और भगवान महावीर ने सूर्याभदेव के पूर्व भव का विस्तार से वर्णन किया था |

अलभिका ( आलभिया )

आधुनिक विद्वान 'एरवा' जो इटावा से बीस मील उत्तर - पूर्व की ओर अब स्थित एक प्राचीन शहर है, उसे आलभिया मानते है, पर आलभिका वर्तमान का एरया नहीं है चूंकि वह राजगृह से वाराणसी जाते हुए मार्ग में आता था | भगवान महावीर जब राजगृह से वाराणसी और वाराणसी से राजगृह पधारे तब आलभिका उनके मार्ग में आई थी |

भगवान महावीर के दस प्रमुख श्रावकों में से पांचवा चुल्ल्शतक प्रस्तुत नगर का रहने वाला था | ऋषिभ्रद आदि अनेक भगवान के उपासक महाँ पर रहते थे। पोग्गल परिव्राजक को यही पर अपना श्रमण शिष्य बनाया था |

आलंभिका ( आलंभिया )

मुनि श्री कल्याणविजयजी के अभिमतानुसार आलंभिया और आलभिया ये दोनों एक थे और उसके दो नाम थे |
उवासगदशाओं के परिशिष्ट में हानल ने आलंभिया की अवस्थिति पर विचार करते हुए अनेक मत दिए हैं-
(१) कर्मल यूल ने इसकी पहचान रीवा से की है |
(२) फाह्यान की यात्रा के बील कृत अनुवाद में (बुद्धिस्ट रेकार्ड आव द वेस्टर्न वर्ल्ड, पृष्ठ xiiii) उल्लेख है कि कन्नोज से अयोध्या जाते समय गंगा के पूर्वी तट पर फाह्यान को एक जंगल मिला था। फाह्यान ने लिखा है कि बुद्ध ने यहाँ उप- देश दिया था और वहाँ पर स्तूप बना हुआ है |
हार्नेल का मन्तव्य है कि पालि शब्द अलवी और संस्कृत अटवी का अर्थ भी जंगल होता है |

कार्निघम का मत है कि नवदेवकुल ही अलवी हो सकती है, जिसका उल्लेख होर्नच्यांग ने किया है। कनोज से १९ मील दक्षिण-पूर्व में अवस्थित नेवल में अब भी इसके अवशेष है। फाह्यान और हॉर्नच्यांग के सूचित किए हुए वर्णन से इसकी दूरी का मेल बैठ जाता है |

मुनि श्री इन्द्रविजय जी का मत है कि जैन ग्रन्थों में आया आलंभिया बौद्ध ग्रन्थों में आया आजबी दोनों एक ही स्थान के नाम हैं |

महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने आलवी की पहचान अर्बल-जिला कानपुर से की है |

भिक्षु जगदीश और धर्मरक्षित ने आलवी की पहचान उन्नाव जिले के नेवल से की है |

हमारी दृष्टि से भगवान महावीर के विहार क्रम में आई हुई आलंभिया न तो उन्नाव में है और न ही कानपुर में है। यह स्थान प्रयाग और मगध के बीच में होना चाहिए। डाक्टर हार्नेल ने भगवान महावीर के विहार क्रम को बिना मिलाये ही प्रयाग से पश्चिम में उसे पहचानने का प्रयास किया है। जो उचित नहीं है।

भगवान महावीर ने अपना छद्मस्थ अवस्था में सातवां वर्षावास आलंभिया में किया था।

उज्जयिनी

इसकी अवस्थिति के सम्बन्ध में देखें 'अवन्ती' ।

उत्तर कोसल

फैजाबाद, गोंडा, बहराइच, बाराबंकी के जिले और उसके सन्निकट के कुछ भाग, अवध, बस्ती, गोरखपुर, आजमगढ़ और जौनपुर जिलों का कुछ भाग उत्तर कोसल या कोसल जनपद कहलाता था ।

उत्तर बाचाला

कनकखल आश्रम में चंडकौशिक को प्रतिबोध देने के पश्चात् पन्द्रह दिन तक ध्यान की साधना कर महावीर उत्तरवाचाला गये थे। नागसेन ने भक्ति - भावना से विभोर होकर महावीर को क्षीर का दान दिया था | यहाँ आते समय भगवान का देवदूष्य वस्य सुवर्णालुका नदी के किनारे काँटों से उलझ कर गिर गया था। यह नगर श्वेताम्बिका के सन्निकट था।

उत्तर विदेह

नेपाल का दक्षिण प्रदेश पहले उत्तर विदेह के नाम से विश्रुत था ।

उन्नाग ( उन्नाक )

भगवान महावीर पुरिमताल से उन्नाग होते हुए गोभूमि की तरफ पधारे थे। गोशालक के अनुचित कृत्य से क्रुद्ध होकर लोगों ने उसे पीटा था। सम्भव है वर्तमान का उन्नावा ही महावीर के युग का उन्नाव हो ।

उपनन्दपाटक

यह ब्राह्मण गांव का एक विभाग था, जहाँ का जागीरदार उपनन्द था |

उल्लुकातीर

उल्लुका नदी के किनारे यह नगर बसा हुआ था | इसके सन्निकट का प्रदेश नदीखेड के नाम से पहचाना जाता था | उल्लुकातीर के बाहर जम्बूचैत्य उद्यान नामक था, जहां पर श्रमण भगवान महावीर विराजते थे और उपदेश प्रदान करते थे । आगम साहित्य में जहाँ पर इस नगर का उल्लेख हुआ है, वहां पर उसके आगे-पीछे राजगृह के समवसरण की भी चर्चा है। जिससे सहज ही यह अनुमान होता है कि प्रस्तुत नगर मगध में ही होना चाहिए | वर्तमान में इस नगर का नया नाम है, यह अभी तक विज्ञों को ज्ञात नहीं हो सका है |

ऋजुवालिका

भगवान महावीर को ऋजुवालिका नदी के उत्तर-तट पर केवलज्ञान हुआ था। कितने ही विज्ञों का यह मत है हजारीबाग जिले में गिरिडीह के निकट बहने बाली बाराकड़ नदी ही ऋजुबालिका है। कितने ही विज्ञ भगवान महावीर की केवल- भूमि सम्मेतशिखर के समीप बताते हैं, पर मुनि श्री कल्याणविजय जी का अभिमत है कि यह स्थान नहीं हो सकता, चूंकि उसके पास कोई भी नदी नहीं है, और न जंभियगांव नाम के सदृश कोई गांव ही है। यह सत्य है कि सम्मेतशिलर से पूर्व दक्षिण दिशा में दामोदर नदी आज भी बह रही है। पर ऋजुवालिका नदी का कहीं भी नाम नहीं है। आजी नाम की एक नदी उक्त दिशा में बहती है, किन्तु स्मरण रहे कि वह ऋजुबालिका नदी नहीं हो सकती । कारण कि आजी नाम की एक बड़ी और प्रसिद्ध नगरी प्राचीन युग में भी थी। स्थानाङ्ग में गंगा की पांच सहायक नदियों में 'आजी' का भी एक नाम आया है। अतः 'आजी' को ऋजुपालिया का अपभ्रंश मानना युक्ति - युक्त नहीं है। ऋजुपालिया नदी से भगवान का द्वितीय समवसरण जहां मध्यमा पावा में हुआ था, वह स्थान वहां से बारह योजन दूर था, जबकि वह स्थान 'आजी' व दामोदर नदी से काफी दूर है।

जंभियगांव और ऋजुबालिका नदी मध्यम पावा के सन्निकट ही होनी चाहिए।

ऋषभपुर

ऋषभपुर के बाहर धुभकरण्डक उद्यान था और धन यक्ष का चैत्य था । रानी का नाम सरस्वती और राजा का नाम घनावह था एवं राजकुमार का नाम भद्रनन्दी था । भद्रनंदी ने भगवान के पास श्रमणधर्म स्वीकार किया था।
द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त ऋषभपुर के निवासी थे। उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार ने ऋषभपुर को राजगृह का पर्यायवाची माना है। ऋषभपुर का इतिहास देते हुए आवश्यक चूर्णिकार ने लिखा है-पूर्व वह क्षितिप्रतिष्ठित नगर था। उसका वास्तु विच्छिन्न हो जाने से चनक नगर बसाया गया। चनक नगर जब जीर्ण-शीर्ण हो गया तब ऋषभपुर बसाया गया। उसके पश्चात् कुशाग्रपुर और फिर राजगृह । इससे स्पष्ट है कि राजगृह ऋषमपुर नहीं है, अपितु मगध का स्वतंत्र नगर है। उसके उद्यान आदि के नाम पृथक आये हैं।

भगवान महावीर का समवसरण जिस ऋषभपुर में हुआ था वह ऋषभपुरमुनि श्री कल्याणविजयजी के अभिमानुसार पांचाल की और उत्तर भारत में होना चाहिए |

कनखल आश्रमपद

चण्डकौशिक सर्प ने जहां पर भगवान महावीर को डसा था। भगवान ने दृष्टि- विष सर्प को प्रतिबोध देने के पश्चात् पन्द्रह दिन तक वहां पर ध्यान किया था। प्रस्तुत आश्रमपद श्वेताम्बिका नगरी के समीप मा था |

कनकपुर

भगवान महावीर इस नगर के बाहर श्वेताशोक उद्यान में बिराजे थे, उस समय वहां का राजा प्रियचन्द्र था और महारानी का नाम सुभद्रा देवी था। राजकुमार का नाम वैश्रमण था, और उसके पुत्र का नाम धनपति था। भगवान ने प्रथम बार धनपति को पूर्वभव सुनाकर श्रावक के व्रत दिये थे और दूसरी बार पुनः जब वहाँ पर पधारे तब धनपति को श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान की थी। वर्तमान में प्रस्तुत नगर का क्या नाम है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता ।

कयलि समागम

कयलि समागम यह मगध के दक्षिण प्रदेश मलयभूमि में होना चाहिए, चूंकि भगवान महावीर मलय की राजधानी मद्दिल नगरी से वहाँ पर पधारे थे और वहां से वे वैशाली गये थे।

कपंगला

भगवान महावीर ने अपना चतुर्थ वर्षावास पृष्ठचम्पा में किया था और वहां से वे कृयंगला पधारे थे और दरिद्रथेर पाषंडस्थो के देवल में ध्यानमुद्रा में अब स्थित हुए थे। यह स्थान कहां था ? इस पर विद्वानों में एकमत नहीं है।

यदि वह स्थान अंगदेश में चम्पा के पूर्व की ओर था तो संभव है कि वर्तमान में जो कंकजोल है, वही प्राचीन युग की कयांगला हो सकती है ।

बौद्ध साहित्य के आधार से कितने ही विज्ञ संथाल जिले में अवस्थित कंकजोल को ही प्राचीन कचकला (कमंगला) मानते है।

भगवान महावीर के समय एक कयंगला श्रावस्ती के सन्निकट भी थी | कात्यायनगोत्रीय स्कंधक परिव्राजक वहां पर रहता था और यह महावीर का शिष्य बना था |

मुनि श्री इन्द्रविजयजी का अभिमत है कि कयंगला मध्यदेश के पूर्वी सीमा पर थी, जिसका उल्लेख रामपाल चरित्र में भी है। यह स्थान राजमहल जिले में है ।
यह कयंगला श्रावस्ती की कयंगला से पृथक है।

कर्णसुवर्ण कोटीवर्ष

मुर्शिदाबाद जिले में भागीरथी के दक्षिण किनारे पर जहां पर वर्तमान में रांगामाती शहर है, उसका अपभ्रंश नाम 'कामसोना' है, यही पौराणिक युग में पश्चिम बंगाल की राजधानी कर्णसुवर्णनगर था। भगवान महावीर के समय कर्णसुवर्ण कोटि-वर्ष के नाम से प्रसिद्ध था।

कर्मारग्राम

दीक्षा लेकर भगवान महावीर प्रथम रात्रि वहाँ पर रहे थे और गोप ने सर्व प्रथम उनको उपसर्ग दिया था।

कर्मारग्राम का अर्थ कर्मकारग्राम है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वह मजदूरों का गांव था । कर्मार का शाब्दिक अर्थ लुहार भी होता है । संभव है वह लुहारों का गांव था। यह गाँव क्षत्रियकुण्ड के सन्निकट था। लिछुआर के पास जो कर्मार ग्राम है, वह इस कर्मारग्राम से बिलकुल अलग है |

कलंबुका

यह अंगदेश के पूर्व प्रदेश में था। जहाँ कालहस्ती ने भगवान महावीर को पकड़ा था और उसके भाई मेघ ने उनको मुक्त कर दिया था | कलंबुका से भगवान राढ देश में पधारे थे ।

कलिंग

साढ़े पच्चीस आर्य देशों में कलिंग की भी गणना की गई है। कलिंग जनपद उत्तर में उड़ीसा से लेकर दक्षिण में आन्ध्र या गोदावरी के मुहाने तक विस्तृत था । काव्यमीमांसा मे राजशेखर ने दक्षिण और पूर्व के सम्मिलित भू-प्रदेश को कलिंग कहा है। अष्टाध्यायी में पाणिनी ने भी कलिंग जनपद का उल्लेख किया है। बौद्ध साहित्य में कलिंग की राजधानी दन्तपुर बताई है तो महाभारतकार ने राजपुर लिखी है और महावस्तु के अनुसार सिंहपुर है। बसुदेव हिण्डी के अभिमतानुसार कांचनपुर है। सातवीं ईस्वी में कलिंग नगर भुवनेश्वर के नाम से विश्रुत हुआ ।

कुम्भकार जातक में कलिंग देश के राजा का नाम करण्ड आया है और उसे विदेह राज नमि के समकालीन कहा है। कलिंगबोधि जातक के अनुसार कलिंग देश के राजकुमार ने भद्रदेश के राजा की लड़की से विवाह किया था। कलिंग और बंग देश के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध होते थे । ओषनिर्मुक्ति के 'अनुसार यह जनपद एक व्यापारी केन्द्र था और यहाँ के व्यापारी व्यापारार्थ लंका आदि तक जाया करते थे ।

यह जैन श्रमणों का विहारस्थल भी रहा है | खारवेल के समय कर्लींग जनपद अत्यन्त समृद्ध था |
खारवेल ने एक वृहत् जैन सम्मेलन भी बुलाया था, जिसमें भारतवर्ष में विचरण करते हुए जैन यति, तपस्वी, ऋषि और विद्वान एकत्रित हुए थे। नौवी-दशमी शताब्दी में कलिंग में बौद्ध और वैदिक प्रभाव :व्याप्त हो गया था।

युआनचुआंग ने कलिंग जनपद का विस्तार पांच हजार 'ली'' और राजधानी का विस्तार बीस 'सी' माना है |

काकन्दी

भगवान महावीर के समय यह उत्तर भारत की बहुत ही प्रसिद्ध नगरी थी। उस समय वहाँ का अधिपति जितशत्रु था। नगर के बाहर सहस्राभ्रवन था, भगवान जब कभी वहाँ पर पधारते तब वहाँ पर विराजते थे। मद्रा सार्थवाही के पुत्र धन्य, सुनक्षत्र तथा क्षेमक और घ्रतिघर आदि अनेक साधकों ने भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी।

पण्डित मुनि श्री कल्याणविजयजी के अभिमतानुसार वर्तमान में लछुआड से पूर्व में काकन्दी तीर्थ है, वह प्राचीन काकन्दी का स्थान नहीं है। काकन्दी उत्तरभारत में थी | नूनखार स्टेशन से दो मील और गोरखपुर से दक्षिण पूर्व तीस मील पर दिगम्बर जैन जिस स्थल को किष्किंधा अथवा खुखुंदोजी नामक तीर्थ मानते हैं वही प्राचीन काकन्दी होनी चाहिए।

काम्पिलय

काम्पिलय को कपिला भी कहते हैं। यहाँ पर तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म, राज्याभिषेक, दीक्षा आदि अनेक प्रसंग हुए थे । कम्पिलपुर कल्प में जिनप्रभसूरि ने लिखा है— जम्बूद्वीप से दक्षिण भरतखण्ड में पूर्व दिशा में पांचाल नामक देश में कम्पिल नामक नगर गंगा के किनारे अवस्थित है। अठारहवीं शताब्दी के जैन यात्रियों ने कम्पिला की यात्रा करते हुए लिखा है-
जी हो अयोध्या थी पश्चिम दिशे
जी हो कम्पिलपुर से दाय ।
जी हो, विमल जन्मभूमि जाण जो
जी हो पिटियारी वहि जाय ॥

इसमें कंपिलपुर नगरी का अयोध्या से पश्चिम दिशा में होने का उलेख है। पं. बेचरदास जी का मन्तस्य है - फर्रूखाबाद जिले में आये हुए कायमगंज से उत्तर - पश्चिम में छह मील के ऊपर कंपिला हो, ऐसा लगता है |

कर्निघम से काम्पिल्य की पहचान उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में फतेहगढ़ से २८ मील दूर उत्तर-पूर्व गंगा के समीप में स्थित कांपिल से की है। कायमगंज रेलवे स्टेशन से यह केवल पाँच मील दूर है। महाराजा द्विमुख इसी नगर में शोभाहीन धव्जा को देखकर प्रतिबुद्ध हुए |

आजकल काम्पिल्य, कंपिला के नाम से प्रसिद्ध है। यह फर्रूखाबाद से पच्चीस और कायमगंज से छह मील उत्तर-पश्चिम की ओर बूढी गंगा के किनारे अवस्थित है |

कालायसंनिवेश

कालायसंनिवेश यह चम्पा के सन्निकट था। भगवान महावीर चम्पा के बाहर पारणा कर यहाँ पर पहुंचे थे और उन्होंने शून्य घर में ध्यान किया था। ग्रामकूट सिंह ने गोशालक की पूजा की थी |

काशी

काशी जनपद पूर्व में मगध, पश्चिम में वत्स ( बंस ), उत्तर में कौशल और दक्षिण में 'सोन' नदी तक विस्तृत था |

काशी जनपद की सीमाएं सदा एक समान नहीं रही है। काशी और कौशल में परस्पर संघर्ष भी चलता रहा है। कभी काशी निवासियों ने कौशल पर अधिकार किया तो कभी कौशल निवासियों ने काशी पर उत्तराध्ययन की टीका में लिखा है कि हरिकेशवल वाराणसी के तिन्दुक उद्यान में ठहरे हुए थे। यहाँ पर कौशलराज की पुत्री भद्रा पक्षपूजन के लिए उपस्थित हुई | प्रस्तुत प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि उस समय काशी पर कौशल का आधिपत्य था ।

आगमों में गिनाए गये - साढ़े पच्चीस आर्य देशों एवं सोलह महा जनपदों में काशी का भी उल्लेख प्राप्त होता है। भारत की दस प्रमुख राजधानियों में वाराणसी का भी नाम मिलता है। यूआन चुआणड ने वाराणसी को देश और नगर दोनों माना है |

उसने वाराणसी देश का विस्तार चार हजार 'ली' और नगर का विस्तार लम्बाई में अठारह 'लो' और चौड़ाई में छह 'ली' बताया है |

जातक के अनुसार काशी राज्य का विस्तार ३०० योजना था |

वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। यह नगर 'वरना' (वरुणा) और असी इन दो नगरियों के बीच स्थित था अतः इसका नाम वाराणसी पड़ा, यह नैरुक्त नाम है। आधुनिक वाराणसी गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर गंगा और वरुणा के संगमस्थल पर है |

काशी, कोशल आदि १८ गणराज्यों ने वैशाली के अधिपति चेटक की ओर से राजा कृणिक से युद्ध किया था। |
काशी और कोशल के अठारह गणराजा भगवान महावीर के परिनिर्वाण के समय वहाँ पर उपस्थित थे। काशी नरेश शंख ने भगवान महावीर के पास दीक्षा ली थी |
काशी भगवान पार्श्व की जन्मस्थली है |

कुण्डपुर

बसाढ के निकट जो वाकुण्ड स्थान है, वहीं प्राचीन युग में कुण्डपुर था | उनके दो विभाग थे | एक ब्राह्मण कुण्डग्राम और दूसरा क्षत्रिय कुण्डग्राम | ब्राह्मण- कुण्डग्राम में ब्राह्मणों का प्राधान्य था और क्षत्रिय कुण्डग्राम में क्षत्रियों का | भगवान महावीर एक बार जब ब्राह्मण कुण्डग्राम में पधारे तब दोनों ही कुण्डग्रामों के भावुक भक्त उन्हें वन्दन के लिए पहुंचे थे | इससे यह सिद्ध होता है कि वे दोनों कुण्डग्राम आस-पास में थे। दोनों के बीच में बहुसाल नामक चैत्य था |

कुण्डपुर की अवस्थिति वैशाली के सन्निकट थी। आजकल परम्परा के अनुसार भगवान महावीर की जन्मस्थली क्यूल स्टेशन से पश्चिम की ओर आठ कोस पर अवस्थित लच्छः आडगाँव मानते हैं।

कुंडाकसन्निवेश

आलंभिया के बाहर भगवान महावीर ने पारणा किया | वहाँ से वे कुण्डाक सन्निवेश पधारे थे और वासुदेव के आलय में ध्यान-मुद्रा में अवस्थित हुए | प्रस्तुत सन्निवेश काशी राष्ट्र के पूर्व प्रदेश में आलंभिया के सन्निकट था।

कुमाराकसंनिवेश

यह संनिवेश अंगदेश की पृष्ठचम्पा के सन्निकट था। भगवान ने इसके बाहर चम्परमणीयोद्यान में ध्यान किया था और गोशालक ने यहाँ पर पार्श्वापत्य श्रमणों से असभ्यतापूर्ण वार्तालाप किया था।

कुरु

प्रस्तुत देश पाञ्चाल के पश्चिम में और मत्स्य के उत्तर में था। उसकी पहले राजधानी हस्तिनापुर में थी, जहां पर भगवान शान्तिनाम आदि अनेक तीर्थंकरों ने जन्म ग्रहण किया था। पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ को फिर इस देश की राजधानी बनाई | कुरु (धानेश्वर) का उल्लेख महाभारत में भी आता है। यहां के लोग पूर्ण स्वस्थ और प्रतिभासम्पन्न थे |

वसुदेव हिण्डी में इसको ब्रह्मस्थल कहा है | श्रावस्ती के समान हस्तिनापुर भी उजाड़ पड़ा है |

कुरुजांगल

कुरुजांगल का ही अपर नाम श्रीकण्ठ देश था | यह देश हस्तिनापुर से उत्तर-पश्चिम में था | सहारनपुर से तेतीस मील उत्तर-पश्चिम की ओर बिलासपुर इसकी राजधानी थी | जैन साहित्य में जंगल की राजधानी अहिच्छत्रा लिखा है, इससे यह प्रतीत होता है कि उत्तर-पांचाल और कुरु - देश का संयुक्तराष्ट्र कुरुजांगल होगा।

कूपियसन्निवेश

छद्धमस्थ अवस्था में भगवान महावीर वहाँ पर पधारे थे, और गुप्तचर समझकर उन्हें वहां पर पकड़ लिया गया था | विजया और प्रगल्भा परिव्राजिकाओं ने भगवान का परिचय देकर मुक्त करवाया था। यह सन्निवेश वैशाली से पूर्व में विदेह भूमि में था |

कूर्मग्राम

यह ग्राम पूर्वीय बिहार में होना चाहिए। चूंकि भगवान महावीर वीरभौम से सिद्धार्थपुर होते हुए यहाँ पर आये थे |

केकय

साढ़े पच्चीस आर्य देशों में केकय की भी गणना की गई है | केकय का आधा भाग आर्य देश में था और आधा भाग अनार्य देश में था। संभव है कि आधे भाग में जैन धर्म का प्रचार हो और आधे भाग में आदिवासियों की आबादी हो |

केकय नाम के दो प्रदेश थे| एक था खिन्न्वाड़ा नमक की पहाड़ी अथवा शाहपुर- झेलम- गुजरात | पाणिनी ने केकय-जनपद में झेलम, शाहपुर और गुजरात का नाम दिया है | दूसरा केकय श्रावस्ती के उत्तर पूर्व में नेपाल की तराई में अवस्थित था। इसकी राजधानी श्वेताम्बिका थी | वह संभवतः श्रावस्ती और कपिल- वस्तु के मध्य में नेपालगंज के पास थी |

श्वेताम्बिका श्रावस्ती से राजगृह जाने वाले मार्ग पर थी | राजप्रश्नीय में उसे श्रावस्ती के सन्निकट बताया है | फाहियान और बौद्ध ग्रन्थों में भी उसे श्रावस्ती से निकट कहा है। कितने ही आधुनिक विद्वान सीतामढी को श्वेताम्बी मानते हैं, किन्तु यह अनुचित है, चूंकि सीतामढ़ी श्रावस्ती से २०० मील दूर है | मि० बोस्ट ने बलेदिला को प्राचीन स्वेताम्बी माना है, जो सहेत - महेत से ३७ मील दूर और बलरामपुर से ६ मील है |

जैन ग्रन्थों में श्वेताम्बिका (सेयविया) को केकय की राजधानी कहा है | बोद्ध साहित्य में उसे 'सेतव्या' कहा है और उसे कौशल देश की नगरी बतलाई है | श्वेताम्बिका से गंगा नदी पार कर महावीर के सुरभिपुर पहुंचने का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बिका का राजा प्रदेशी निर्ग्रन्थ धर्म का उपासक था | भगवान महावीर ने अनेक बार इस प्रदेश को पावन दिया था |

कोटिवर्ष

राठदेश की कोटिवर्ष राजधानी थी | यहाँ के राजा किरातराज ने भगवान महाबोर के पास दीक्षा ली थी, साकेत नगर में आकर के कोटिवर्ष में किरातजाति का राज्य था। छद्मस्थ अवस्था में जब महाबीर इधर विचरे थे तब यह प्रदेश अनार्य था, पर किरातराज के दीक्षा लेने के पश्चात जैन श्रमणों का इधर विहार होने से और जैनधर्म का प्रचार होने से बाद में आचार्यों ने इसकी गणना आर्यदेश में की | पच्चीस आर्य - देशों में राठ का भी नाम है | पौराणिक साहित्य में कोटिवर्ष का नाम कर्णसुवर्ण मिलता है। यह देश वर्तमान में पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के आसपास था, ऐसा विज्ञों का मत है |

कोल्लाक सन्निवेश

कोल्लाक नाम के दो सन्निवेश थे | एक वैशाली के सन्निकट और दूसरा राजग्रह के सन्निकट | वैशाली के सन्निकट जो कोल्लाक सन्निवेश था, वहा पर भगवान दीक्षा देने के पश्चात् प्रथम पारणा करते हैं |

दूसरा कोल्लाक सन्निवेश राजग्रह के पास था। वहाँ पर भगवान महावीर ने छद्दमस्थकाल मे नालन्दा का वर्पावास पूर्ण कर मसिकोपवास का पारणा किया था। यहीं पर गोशालक को शिष्य के रूप में रहने की स्वीकृति दी थी | प. मुनि श्री कल्याणविजय जी अभिमत है चौथे और पांचवे गणधर की जन्मस्थली भी यही कोल्लाक सन्निवेश होना चाहिए |

जो लोग लछवाड के पास तीसरे कोल्लाक की कल्पना करते हैं, यह ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक नहीं है | चूंकि दो ही कोल्लाक सन्निवेश थे, तीसरा नहीं था।

वैशाली के सन्निकट जो सन्निवेश था वहवर्तमान मे वसाढ़ से उत्तर-पश्चिम में दो मील पर जो कोल्हुआ है, वही प्राचीन कोल्लाक सन्निवेश होना चाहिए |

कोसला

अयोध्या का अपर नाम कोमला था। भगवान महावीर के नौवें गणधर अचलभ्राता की यह जन्मभूमि थी |

कौशाम्बी

कौशाम्बी (कोसम, जिला-इलाहबाद) वत्स की राजधानी थी। इस नगरी का वर्णन रामायण और महाभारत में भी आता है | कहा जाता है कि गंगा की बाद से हस्तिनापुर के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर राजा परीक्षित के उत्तराधिकारियों ने कौशाम्बी को राजधानी बनाया | यहां के कुक्कुटाराम, घोषिताराम और अम्बवन आदि का उल्लेख जैन और बौद्ध वाङमय में अनेक स्थानों पर आया है |

कार्निघम के अभिमतानुसार यमुना नदी के बायें तट पर इलाहाबाद से सीधे रास्ते से लगभग ३० मील दक्षिण-पश्चिम में अवस्थित 'कोसम' गांव ही प्राचीन कौशाम्बी है |

उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति के अनुसार कौशाम्बी और राजगृह के बीच अठारह योजन का एक महा-अरण्य था। यहां पर बलभद्र आदि कक्क्डदास जाति के पाँच सौ तस्कर रहते थे, जिन्हें कपिल मुनि ने प्रतिबोध दिया था। बृहत्कल्प में श्रमण और श्रमणियों के बिहार की जो सीमा निर्धारित की है, उसमें कौशाम्बी दक्षिण दिशा की सीमा निर्धारण नगरी थी |

कौशाम्बी के आसपास की जो खुदाई हुई है और जो भम्नावशेष निकले हैं उसके सम्बन्ध में विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है- मेरा यह द्धढ एक निश्चय है कि इलाहाबाद जिसे के अन्तर्गत कोसम गांव से प्राप्त अवशेषों में अधिकतर जैनों के हैं | कार्निघम ने जो इन्हें बौद्ध अवशेषों के रूप में स्वीकार किया है, वह ठीक नहीं है। निःसन्देह यह स्थान जैनों की प्राचीन नगरी कौशाम्बी का ही प्रतिनिधित्व करता है |

भगवान महावीर भी अनेक बार कौशाम्बी पधारे | चन्दनवाला और मृगावती ने यहीं पर दीक्षा ली थी | राजा शतानीक भी कोशम्बी का ही शासक था । कोसांविया जैन श्रमणों की शाखा मानी गई है।

क्षितिप्रतिष्ठित

भगवान महावीर के बिहार वर्णन में क्षितिप्रतिष्ठित नगर का भी उल्लेख हुआ है। क्षितिप्रतिष्ठित नगर की अवस्थिति कहाँ थी ? यह निश्चित रूप से कहना कठिन है | गंगा के बायें तट पर जहाँ इस समय झूसी है, वहीं पर पहले प्रतिष्ठानपुर नगर था। संभव है प्रतिष्ठानपुर का ही अपरनाम क्षितिप्रतिष्ठित रहा हो।

गंगा

भारतवर्ष की सबसे बड़ी नदी गंगा है। गंगा को देवताओं की नदी माना है | जैन साहित्य में गंगा को देवाधिष्ठित नदी कहा है | गंगा का विराट रूप ही उसकी देवत्व की प्रसिद्धि का कारण रहा है |

गंगा महानदी है | स्थानाङ्ग में गंगा को महार्णव कहा है | आचार्य अभय- देव ने महानर्व शब्द को उपमावाचक मानकर उसका अर्थ किया है कि विशाल जल-राशि के कारण वह विराट् समुद्र के समान थी | पुराणकार ने भी गंगों को समुद्र रूपिणी कहा है।

वैदिक द्रष्टि गंगा में नोसो नदियाँ मिलती है | जैन द्रष्टि से चोदह हजार नदियाँ गंगा में मिलती है | जिनमें यमुना, सरियू, कोशी मही आदि बही नदियाँ भी मिलती है |

प्राचीन काल में गंगा नदी का प्रवाह बहुत विशाल था | समुद्र में प्रवेश करते समय गंगा का पाट साढ़े बासठ योजन चौड़ा था और पांच कोस गहरी थी | आज गंगा इतनी विशाल और गहरी नहीं है | गंगा नदी में से और उसकी सहायक नदियों में से अनेकानेक विराटकाय नहरे निकल चुकी है। तथापि गंगा अपनी विराट्टता के लिए विश्रुत है | वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा १५५७ मील के लम्बे मार्ग को तय कर बंगसागर में गिरती है। यमुना, गोमती, सरयू, रामगंगा, गंडकी, कोणी और ब्रह्मपुत्र आदि अनेक नदियों को अपने में मिलाकर वर्षाकालीन बाढ से गंगा महानदी १८००,००० घनफुट पानी का प्रस्त्राव प्रति सेकंड करती है |

भगवान महावीर के बिहार प्रसंग में गंगा का उल्लेख अनेक बार आया है। प्राचीन ग्रन्थो में भगवान ने चद्दमस्थकाल में दो बार नाम द्वारा गंगा पार की, ऐसा उल्लेख आया है |

उपाध्याय श्री अमरमुनि जी महाराज ने भगवान महावीर ने गंगा महानदी क्यों पार की | शीर्षक लेख में भगवान महावीर ने केवलज्ञान के पश्चात् अट्ठाईस बार गंगा महानदी नौका से पार की ऐसा उल्लेख किया है | प्राचीन ग्रन्थों में कहीं पर भी केवलज्ञान के पश्चात्त नौका से गंगा पार की, ऐसा वर्णन नहीं आया है |

गंडकी

प्रस्तुत नदी हिमालय के सप्तगंडकी और धवलगिरि से निकलती है। इस नदी के गंडक, नारायणी आदि अनेक नाम है। महावीर के समय इसका नाम गंडकीका ( गंडइआ ) मिलता है। गंडकी के किनारे ही वैशाली और वाणिज्यग्राम बसे हुए थे |

गुणशील

राजगृह के बाहर गुणशील नामक एक प्रसिद्ध बगीचा था। भगवान महावीर के शताधिक बार यहाँ समवसरण लगे थे | शताधिक व्यक्तियों ने यहां पर श्रमणधर्म व चारित्रधर्म ग्रहण किया था। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधरों ने यहीं पर अनशन कर निर्वाण प्राप्त किया था। वर्तमान का गुणावा, जो नवादा स्टेशन से लगभग तीन मील पर है, वही महावीर के समय का गुणशील है |

गोकुल

गोकुल का दूसरा नाम ब्रजगांव भी मिलता है | भगवान महावीर जब यहाँ पर भिक्षा के लिए पधारे तो संगमक ने सभी स्थानों पर आहार में अनेषणा कर दी थी, यहीं से संगमक ६ महीने के पश्चात् लोटा था। मुनि श्री कल्याणविजय जी के अभिमतानुसार यह गोकुल उड़ीसा में या दक्षिण कोसल में कहीं पर होना चाहिए |

गोब्बरगांव

गोब्बरगांव राजगृह से पृष्ठचम्पा जाने वाले रास्ते में आता था | गौतम- रासा में इसे मगधदेश में होने का उल्लेख किया है | कितने ही उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि यह पृष्ठचम्पा के संनिकट था, अतः यह अंगभूमि में रहा होगा ऐसा प्रतीत होता है | महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति की यह जन्मस्थली थी |

ग्रामक संनिवेश

प्रस्तुत संनिवेश वैशाली और शालिशीषं नगर के मध्य में था। इस संनिवेश के बाहर विभेलक उद्यान था | जहाँ पर महावीर ध्यानमुद्रा में खड़े हुए थे, और विभेलक यक्ष ने भगवान की अर्चना की थी।

चन्दनपादप उद्यान

मृगगांव के संनिकट ही यह उद्यान था। भगवान महावीर ने इसी उद्यान में मृगापुत्र के पूर्वभव का निरूपण किया था।

चन्द्रावतरण चैत्य

चन्द्रावतरण नाम के दो चैत्य थे, एक उद्दण्डपुर के निकट तो दूसरा कौशाम्बी के बाहर | भगवान महावीर दूसरे चन्द्रावतरण चैत्य में अनेक बार पधारे थे और जयन्ती, मृगावती, अंगारवती आदि अनेक राज महिलाओं को श्रमणधर्म में दीक्षित किया था |

चम्पा

चम्पा अंग देश की राजधानी थी | कनिंघम ने लिखा है-भागलपुर से ठीक २४ मील पर पत्थरघाट है। यहीं इसके आस-पास चम्पा की अवस्थिति होनी चाहिए |

इसके पास ही पश्चिम की ओर एक बड़ा गाँव है,जिसे चम्पानगर कहते है और एक छोटा-सा गांव है जिसे चम्पापुर कहते है | संभव है, ये दोनों प्राचीन राजधानी चम्पा की सही स्थिति के धोतक हो |

फ़ाहियान ने चम्पा को पटीलपुत्र से १८ योजन पूर्व दिशा में गंगा के दक्षिण तट पर स्थित माना है |

महाभारत की दृष्टि से चम्पा का प्राचीन नाम 'मालिनी' था | महाराजा चम्प उसका नाम चम्पा रखा |

स्थानाङ्ग में जिन दस राजधानियों का उल्लेख हुआ है और दीघनिकाय में जिन छह महानगरियों का वर्णन किया गया है, उनमें एक चप्पा भी है औपपातिक सूत्र में इसका विस्तार से निरूपण है।

दशवैकालिक सूत्र की रचना आचार्य श्य्यंभव ने यहीं पर की थी | सम्राट् श्रेणिक के निधन के पश्चात् कूणिक (अजातशत्रु) को राजगृह में रहना अच्छा न लगा और एक स्थान पर चम्पा के सुन्दर उद्यान को देखकर चम्पा नगर बसाया | गणि कल्याणविजय जी के अभिमतानुसार चम्पा पटना से पूर्व ( कुछ दक्षिण में ) लगभग सौ कोस पर थी | आजकल इसे चम्पानाला कहते है | यह स्थान भागलपुर से तीन मील दूर पश्चिम में है |

चम्पा के उत्तर-पूर्व में पूर्णभद्र नाम का रमणीय चैत्य था, जहाँ पर भगवान महावीर ठहरते थे।

चम्पा उस युग में व्यापार का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ पर माल लेने के लिए दूर- दूर से व्यापारी आते थे और चम्पा के व्यापारी भी माल लेकर मिथिला, अहिच्छत्रा और पिहुंड ( चिकाकोट और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश ) आदि में व्यापारार्थ जाते थे | चम्पा और मिथिला में साठ योजना का अन्तर था |

चेदि

चेदि जनपद वत्स जनपद के दक्षिण में, यमुना नदी के सन्निकट अवस्थित था | इसके पूर्व में काशी, दक्षिण में विन्ध्य पर्वत, पश्चिम में अवन्ती और उत्तर-पश्चिम में मतस्य व सुरसेन जनपद थे । मध्यप्रदेश का कुछ भाग और बुन्देलखण्ड का कुछ हिस्सा इस जनपद के अन्तर्गत आता था। विभिन्न कालों में इसकी सीमा परिवर्तित होती रही है | चेतीय जातक के अनुसार इस जनपद की राजधानी सोत्थिवती नगरी थी | नन्दलाल दे का कथन है सोत्थिवती नगरी ही महाभारत की शुक्तिवती नगरी थी | पार्जिटर इस जनपद को बांदा के समीप बतलाते हैं | डा० रायचौधरी का भी यही मत है | बौद्ध साहित्य में चेदि राष्ट्र का विस्तार से निरूपण है और इसके प्रसिद्ध नगरों का भी कथन है | चेदि जनपद से काशी जनपद जाने का एक मार्ग था | वह भयंकर अरण्य में से होकर जाता था और मार्ग में तस्करों का भी भय रहता था | महाभारत-युग में शिशुपाल 'चेदि' जनपद का सम्राट था | आचार्य जिनसेन ने चेदि राज्य की समृद्धि का वर्णन किया है | चंदेरी नगरी का समीपस्थ प्रदेश 'चेदि' जन-पद कहलाता था | शुक्तिमतीया जैन श्रमणों की एक शाखा भी रही है | बांदा जिले से आस-पास के प्रदेश को शुक्तिमती कहा जाता है ।

चोराक संनिवेश

चौराक सनिवेश यह प्राचीन अंग जनपद और आधुनिक पूर्व बिहार में होना चाहिए | यहाँ पर भगवान महावीर को गुप्तचर समझकर पकड़ा था और बाद में सोमा और जयन्ती परिव्राजिकाओं के परिचय देने पर भगवान को मुक्त किया था |

छम्माणि

छम्माणि मध्यमपावा के सन्निकट चम्पा के रास्ते पर था | यहीं पर ग्वाले ने भगवान के कानों में काष्ठ शलाकाएं डाली थीं।

जम्बूखंड

भगवान महावीर मद्दिल नगरी से कदलिसमागम होकर यहां पर पधारे थे और यहां से उन्होंने वैशाली की ओर प्रस्थान किया था। जिससे संभव है कि प्रस्तुत गांव मलयदेश में या दक्षिण मगध में कहीं पर रहना चाहिए |

जंभियगांव

जंभियगांव की अवस्थिति पर विज्ञों का एकमत नहीं है | कर्मियों की कल्पना के अनुसार संमेदशिखर से दक्षिण में बारह कोस पर दामोदर नदी के सन्निकट जो जंभी गाँव है वही प्राचीन जंभियगांव है | कितने ही विज्ञ संमेदशिखर से दक्षिण पूर्व में लगभग पचास मील पर आजी नदी के पास वाले जमगाँव को प्राचीन जंभियगांव मानते है | मुनि श्री कल्याणविजय जी के अभिमतानुसार जंभियगांव के निकट होना चाहिए |

प्रस्तु जंभियगांव में शकेन्द्र ने आकर प्रभु को नमस्कार कर शीघ्र ही केवलज्ञान होने वाला है,यह सूचना दी थी | इसी जंभियगांव के बाहर व्यावृत्य चैत्य के सन्निकट ऋजुबालिका नदी के उत्तरतट पर श्यामाक गृहस्थ के खेत में सालवृक्ष के नीचे भगवान को केवलज्ञान हुआ था |

ज्ञातखण्ड वन

यह क्षत्रिय कुंडपुर के बाहर था, भगवान ने इसी उद्यान में दीक्षा संग्रहण की थी |

तंवाय संनिवेश ( ताम्राक संनिवेश )

यह संनिवेश मगध में होना चाहिए | यहीं पर पार्श्वापत्यीय स्थविर नन्दिसेन के साधुओं के साथ गोशालक का विवाद हुआ था |

ताम्रलिप्ति

पूर्वीय बंगाल की परिगणना सोलह जनपदों में की गई है। महाभारत में भी अंग- वंग का उल्लेख माता है | प्राचीन काल में वर्तमान बंगाल अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था | पूर्वीय बंगाल को समतट, पश्चिमी बंगाल को लाढ, उत्तरी बंगाल को पुण्ड और आसाम को कामरूप कहा जाता था | बंगाल को गौड़ भी कहते थे |

जैन साहित्य की दृष्टि से ताम्रलिप्ति बंगाल की राजधानी थी | ताम्रलिप्ति के पास ही समुद्र था इसलिए उसे समतट भी कहते थे | ताम्रलिप्ति बंगदेश का प्रसिद्ध बंदरगाह था | यहाँ पर जल और स्थल दोनों मार्गों से माल आता-जाता था | आजकल मिदनापुर जिला में जहाँ पर तामलुक नगर है, वहीं पर ताम्रलिप्त नगरी थी | चीन के प्रसिद्ध पायी ह्वेनसांग ने ( ईस्वी सन् ६३० के पश्चात् ) ताम्रलिप्त बन्दरगाह का उल्लेख किया है, किन्तु इस समय, तामलुक से लगभग ६० मील दूर समुद्र चला गया है |

कल्पसूत्र में तामलित्तिया नामक जैन श्रमणों की शाखा का उल्लेख है | इससे यह ज्ञात होता है कि यह जैन श्रमणों का एक प्रसिद्ध केन्द्र था | मोरियपुत्र तामलि का उल्लेख है जिसने मुंडित होकर पाणामा प्रवज्या स्वीकार की थी | यहाँ पर मच्छरों अत्यधिक प्रकोप था। ह्वेनसांग के समय इस नगर में बौद्धों के अनेक बिहार थे | भगवान महावीर ताम्रलिप्ति पधारे थे |

तिन्दुकोधान

यह श्रावस्ती के बाहर था | पार्श्वापत्य केशी श्रमण यहाँ पर ठहरे हुए थे तब इन्द्रभूति गौतम उनके पास गये थे और उनसे धार्मिक चर्चाएं की थी |

तुंगिक संनिवेश

दसवें गणधर मेतार्य की यह जन्मभूमि थी | यह संनिवेश वत्स देश में था, इसलिए मांगीतुंगी गांव ही प्राचीन तुंगिक संनिवेश होना चाहिए |

लुंगिया नगरी

लुंगिया नगरी राजगृह के सन्निकट थी | भगवती सूत्र से भी यही ज्ञात होता है | प्राचीन तीर्थमाला में इसकी पहचान बिहार शरीफ से की गई है | बिहार शरीफ से चार मील दूर तुंगी नामक गाँव है, वही प्राचीन तुंगिया का अवशेष होना चाहिए। तुंगिक सन्निवेश को वहीं पर तुंगीया नगरी भी लिखा है, वह वत्स देश में थी, जहाँ के गणधर मेतार्य थे |

तोसलिगाँव

तोसलीगाँव भगवान महावीर दो बार पधारे | पहली बार संगमक देव ने महावीर पर तस्कर वृत्ति का आरोप लगाया और पकड़े जाने पर भूतिल इन्द्रजालिक ने महावीर को मुक्त करवाया |

दूसरी बार भी चोर समझकर महावीर को पकड़ा और तोसलीपति ने फांसी की सजा दी, सातबार फांसी का फंदा टूट जाने से आपको निर्दोष समझ कर मुक्त कर दिया |

मुनि श्री कल्याणविजय जी के अभिमतानुसार तोसलिगांव गोंडवाना प्रदेश में था | मौर्यकाल में गंगुआ और दया नदी संगम के बीच में तोसली नाम का एक सुन्दर शहर था | यह तोसली ही संभव है महावीर के समय तोसलिगांव रहा हो |

थूणाक संनिवेश

गंगा के दक्षिण तट पर यह सन्निवेश था | महावीर राजगृह जाते समय गंगा उतर कर यहां पर आये थे और उन्होंने यहां पर ध्यान की साधना की थी।

दक्षिण वाचाला

महावीर दक्षिण वाचाला से कनखल आश्रम होकर उत्तर वाचाला गये थे |

दशार्ण

दशार्ण, यह भिलसा के आस - पास का प्रदेश था | मुत्तीकावती यह दशार्ण की राजधानी थी | मालवा प्रान्त में बनास नदी के पास जो भोजो का देश है, वहा पर मुत्तीकावती नगरी थी। हरिवंश पुराण में इस नगरी की अवस्थिति नर्मदा के तट पर बताई है | कालीदास ने दशार्ण जनपद का उल्लेख करते हुए 'विदिशा' (आधुनिक मिलसा) का उसकी राजधानी के रूप में उल्लेख किया है। सूत्रकृतागणचूर्णि में सिंधु देश के साथ विदिशा का वर्णन किया है, जहां पर प्रज्ञप्ति का पड़ना निषिद्ध माना है | वह नगरी क्षेत्र नदी के किनारे थी |

कितने ही विज्ञ मानते है कि बुन्देलखण्ड में धसान नदी बहती है उसके आसपास के प्रदेश का नाम दसन्ण - दशार्ण है | जैन आगमों में उल्लिखित साढ़े पच्चीस आर्य देशों में दशार्ण जनपद का उल्लेख है |

दशार्ण नाम के दो देश मिलते है - एक पूर्व में और दूसरा पश्चिम में | पूर्व- दशार्ण मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ जिले में माना जाता है | पश्चिम - दशार्ण में भोपाल राज्य और पूर्व - मालव का समावेश होता है |

दशार्ण जनपद का दूसरा नाम दशार्णपुर था | आवश्यकचूर्णि में उसका दूसरा नाम एकाक्षपुर बताया है। बौद्ध ग्रन्थ पेतवत्यु में एरकच्छ लिखा है | इस नगर की अवस्थिति बेतवा नदी के किनारे बताई है | डाक्टर जगदीशचन्द्र जी जैन ने इसकी पहचान झांसी जिले में एरछ नामक स्थान से की है |

आवश्यकनिर्यूक्तिक,चूर्णि और टीकाओं के अनुसार दशार्णपुर के उत्तर-पूर्व में दशार्ण कूट नामक पर्वत था | आर्य महागिरि ने इसी पर्वत पर अनशन कर आयु पूर्ण किया था | दशार्ण फूट को गजाग्रपदगिरि और इन्द्रपद भी कहते थे |

इस पर्वत के चारों ओर गांव थे | दशार्णभद्र इस जनपद का राजा था, जिसे भगवान महावीर ने दीक्षा प्रदान की थी।
दशार्ण जनपद का एक महत्त्वपूर्ण नगर दशपुर भी माना है जिसका आधुनिक नाम मन्दसौर है | वह आचार्य की जन्मभूमि थी | वहां से मे अध्ययन करने हेतु पाटलीपुत्र गये थे | दशार्ण यह जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र था |

दूतिपलाश चैत्य

दूतिपलाश नामक उद्यान बाणिज्यधाम के बाहर था | जहाँ पर भगवान महावीर ने आनन्द गाथापति, सुदर्शन श्रेष्ठी आदि को श्रावक धर्म में दीक्षित किया था |

द्रढ़भूमि

शक्रेन्द्र कृत महावीर की प्रशंसा को सहन न करने से संगमक जहाँ द्रढ़भूमि में महावीर ध्यानमुद्रा में खड़े थे वहाँ आया और एक रात में महावीर को बीस उपसर्ग दिये | द्रढ़भूमि में अनार्य लोगों की आबादी अधिक थी | पेढालगांव इसी भूमि में था | इसकी अवस्थिति आधुनिक गोंडवाना प्रदेश में होनी चाहिए |

नंगला गांव

नंगला गाँव के वासुदेव मन्दिर में महाबीर ने ध्यान किया था | नंगला श्रावस्ती से राठ की ओर जाने वाले मार्ग में पढ़ता था | महावीर श्रावस्ती से हरिद्रुक और वहाँ से नंगला पधारे थे | यह गाँव कोशलभूमि के पूर्व प्रदेश में होना चाहिए | यह गाँव बौद्ध साहित्य में इच्छानंगल के नाम से प्रसिद्ध है, यहाँ पर वेदशास्त्रों के महान पंडित रहते थे।

नन्दिग्राम

नन्दिग्राम वैशाली और कौशाम्बी के मध्य में था | वैशाली से सुंसुमार भोगपुर होकर महावीर नन्दिग्राम पधारे थे और वहाँ से मिढियग्राम होकर कौशाम्बी पधारे थे | वर्तमान में अयोध्या व फैजाबाद से दक्षिण की ओर नौ मील पर स्थित भरतकुंड के समीप जो नन्दगाँव है, यही प्राचीन नन्दिग्राम होना चाहिए |

नालन्दा

पटना से दक्षिण-पूर्व में राजगृह से ७ मील और बख्तियार - लाइट रेलवे के नालंदा स्टेशन से दो मील पर अवस्थित वडगांव प्राचीन युग का नालंदा है | बिहार शरीफ से यह लगभग पांच मील दूर है | बिहार शरीफ से राजगीर जाते समय नालन्दा नामक स्टेशन बीच में आता है | यहाँ पर प्राचीन युग में विश्वविद्यालय था | जिसके खण्डहर आज भी उपलब्ध होते हैं | विक्रम की सातवीं और आठवीं शताब्दी में वह पूर्ण उन्नत अवस्था में था |

भगवान महावीर मे अनेक वर्षावास पहू पर व्यतीत किये | गणपर गोतम और उदक पेढालपुत्र का संवाद भी यहीं पर हुआ था | टीकाकार ने नालंदा का अर्थ इस प्रकार किया है कि जो अर्थियों को यथोचित प्रदान करता है यह नालंदा है | ह्वेनसांग ने लिखा कि इसका नाम आम्रवन के मध्य में स्थित तालाब में रहने वाले नाम के नाम पर नालंदा हुआ |

पत्तकालक

यहां पर महावीर रात्रि में एक शून्य गृह में ध्यानस्थ खड़े हुए थे | गोशालक को स्कन्दक नामक युवक ने उसके अनुचित कृत्य से पीटा था | यह गाँव चम्पा के पास था |

पाञ्चाल

(पंचाल ) पांचाल प्राचीनकाल में एक समृद्धिशाली जनपद था | यह इन्द्रप्रस्थ से तीस योजना दूर कुरुक्षेत्र के पश्चिम और उत्तर में अवस्थित था | पांचाल जनपद दो भागों में विभक्त था १. उत्तर पांचाल और २. दक्षिण पांचाल | पाणिनि के अनुसार- पांचाल जनपद तीन भागों में विभक्त था - (१) पूर्व पांचाल (२) अपर पांचाल (३) और दक्षिण पांचाल महाभारत के अनुसार गंगानदी पांचाल को दक्षिण और उत्तर में विभक्त करती थी। एटा और फर्र्रूखाबाद के जिले दक्षिण पांचाल के अन्तर्गत आते थे | यह भी ज्ञात होता है कि उत्तर पांचाल के भी पूर्व और अपर ये दो विभाग थे। दोनों को रामगंगा विभगत करती थी | अहिच्छत्रा उत्तरी पांचाल तथा काम्पिल्य दक्षिणी पांचाल की राजधानी थी |

कांपिल्यपुर गंगा के किनारे पर अवस्थित था । यहीं पर द्रोपदी का स्वयंवर रचा गया था। इन्द्र - महोत्सव भी यहाँ उल्लास के साथ मनाया जाता था |

माकदी दक्षिण पांचाल की दूसरी राजधानी थी | यह व्यापार का मुख्य केन्द्र था | समराइच्च कहा में हरिमन्द्रसूरि ने इस नगरी का वर्णन किया है |
कान्यकुब्ज (कन्नौज) दक्षिण पांचाल में पूर्व की ओर अवस्थित था | इसे इन्द्रपुर, गाधिपुर, महोदय और कुशस्थल आदि नामों से भी पहचाना जाता था |

सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक कान्यकुब्ज उत्तर भारत के साम्राज्य का केन्द्र था | चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय सम्राट हर्षवर्धन वहां के राजा थे | उस समय वह शूरसेन के अन्तर्गत था |

दिमुख, जो प्रत्येक बुद्ध था, पांचाल का प्रभावशाली राजा था | प्रभावक चरित्र के अनुसार पाञ्चाल और लाट देश कभी एक शासन के अधीन भी रहे हैं |
बौद्ध साहित्य में पाञ्चाल का उल्लेख सोलह महाजनपदों में किया गया है, किन्तु जैन साहित्य में वर्णित सोलह जनपदों में पाञ्चाल का उल्लेख नहीं है |
कार्निधम के अभिमतानुसार आधुनिक एटा, मैनपुरी, फर्रूखाबाद और आस- पास के जिले पाञ्चाल राज्य की सीमा के अन्तर्गत आते हैं |

पावा

प्राचीन समय में पाया नाम के तीन नगर थे | भगवान महावीर का निर्वाण पावा में हुआ था | बौद्ध ग्रन्थों में भी उनका निर्वाणस्थल पावा बताया गया है | इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराएँ इस संबंध में एकमत हैं कि भगवान महावीर का निर्वाण 'पावा' नामक स्थान पर हुआ था | जिनप्रभसूरि ने पाया के पावा, पापा और अपापा यह तीन नाम दिये है |

निचला भाग (बंगाल) इससे हटा हुआ है। गंगा के उत्तर वाले क्षेत्र के बारे में दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय है | पहली यह कि नेपाल वाले अपने से दक्षिण के लोगों को मदेशिया ( मध्यदेशीय ) कहते हैं, दूसरी यह कि चम्पारण (बिहार का बिलकुल उत्तर-पश्चिमी जिला जो नेपाल राज्य और उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले को छूता है) में धान की अत्यधिक उपज बताने के लिये एक कहावत प्रचलित है- 'गजब देश मंझोआ, जहाँ मात न पूछे कोआ' अर्थात् मध्यदेश (या मझौआ परगना) अपूर्व है जहाँ कौआ भी मात नहीं पूछता । अतः गंगा के उत्तर नेपाल एवं चम्पारण के समीप देवरिया जिला स्थित पाया को मध्यदेशीय पात्रा कहना उचित है ।"

पालकग्राम

पालकग्राम चम्पा के पास में और कौशाम्बी के रास्ते में था, चूंकि महावीर कौशाम्बी से पालक होकर चम्पा पधारे थे और वहां पर वाइल ने अपशकुन समझकर महावीर को कष्ट दिया था।

पुरिमताल

इसकी अवस्थिति के विषय में अनेक मत हैं | कितने ही विद्वान इसकी पहचान मानभूम के पास ‘पुरुलिया' नामक स्थान से करते हैं | आचार्य हेमचन्द्र ने पुरिमताल को अयोध्या का शाखा नगर कहा है |
आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में विनीता के बाहर 'पुरिमताल' नामक उद्यान का उल्लेख किया है | पुरिमतास उद्यान में ही भगवान ऋषदेव को केवलज्ञान हुआ था और उसी दिन चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई थी | सम्राट् भरत का लघुभ्राता ऋषभसेन पुरिमताल का अधिपति था, जब भगवान ऋषभ वहां पर पधारे तब उसने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की | कितने ही विद्वानों का अभिमत है, प्रयाग का प्राचीन नाम पुरिमताल था |

भगवान महावीर सातवां वर्षावास पूर्ण कर कुंडाक सन्निवेश से 'लोहाग्रला'' पधारे और वहां से उन्होंने पुरिमतान की ओर प्रस्थान किया | नगर के बाहर शकटमुख उद्यान था, भगवान वहां पर ध्यानस्थ खड़े थे तब वग्गुर श्रावक ने भगवान की उपासना की | पुरिमताल से विहार कर भगवान उन्नाग और गोभूमि होते हुए राजगृह पहुंचे |

एक बार भगवान महावीर पुरिमताल के अमोघदर्शी उद्यान में विराजे उस समय विजयचोर सेनापति के पुत्र अभंगसेन के पूर्वभवों का वर्णन किया | भगवान महावीर के समय पुरिमताल में महाबल राजा था |

चित्र का जीव सौधर्म देवलोक से च्युत होकर पुरिमताल नगर में एक श्रेष्ठी के वहां पर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और वही आगे चलकर महान ऋषि हुआ |

जार्ज सरपेन्टियर का मन्तव्य है कि 'पुरिमताल' का वर्णन दूसरे स्थान पर देखने में नहीं आया, यह 'लिपि कर्ता' का दोष लगता है | इसके स्थान पर कुरु या ऐसा ही कुछ होना चाहिए | उनका यह अनुमान यथार्थ नहीं है | चूंकि अनेक स्थलों पर उसका उल्लेख हुआ है |

पूर्णकलश

यह अनार्य क्षेत्र राठ में गांव था | जहां पर तस्करों ने महावीर को कष्ट दिया था | जहां से भगवान मद्दिल नगरी में पधारे थे |

पूर्णभद्रचैत्य

चम्पा का यह प्रसिद्ध उद्यान था | जहां पर भगवान महावीर ने शताधिक व्यक्तियों को श्रमण व श्रावक धर्म में दीक्षित किया था | राजा कूणिक भगवान को बड़े ठाट-बाट से वन्दन के लिये गया था |

पृष्ठचम्पा

भगवान महावीर ने यहां पर चतुर्थ वर्षावास किया था | यहां के राजा और युवराज शाल, महाशाल, पिटर एवं गागति आदि को इन्द्रभूति गौतम ने जैन दीक्षा प्रदान की थी |
पृष्ठचम्पा, चम्पा से पश्चिम में थी | राजगृह से चम्पा जाते समय पृष्ठचम्पा मध्य में पड़ती थी |

पेढाल उद्यान

पेढाल गांव के बाहर पेढाल उद्यान था, उस उद्यान के पोलास चैत्य में भगवान महावीर ने ध्यान किया था, जिस ध्यान की एकाग्रता की प्रशंसा स्वयं इन्द्र ने की थी और संगमक देव ने भगवान को विचलित करने के लिए अनेक उपाय किये थे | यह पेढाल गांव और उद्यान गोंडवाना में कहीं पर होना चाहिए | यह मुनि श्री कल्याणविजय जी का अभिमत है |

पोतनपुर

पोतनपुर का अधिपति राजा प्रसन्नचन्द्र था | उसने भगवान महावीर के पास दीक्षा ली थी | महावीर चरित्रग्रन्थों के अनुसार पोतनपुर पधारे थे | बौद्ध साहित्य में पोतनपुर का नाम पोतली मिलता है | उसकी राजधानी अस्सक थी | जातकों से ज्ञात होता है कि पहले अस्सक और दन्तपुर के राजाओ में परस्पर युद्ध होता रहता था | यह पोतन किसी समय काशी राज्य का भी अंग था | यह स्थान गोदावरी के उत्तर तट पर अवस्थित था | सातवाहन की राजधानी प्रतिष्ठान और आजकल का पैठन ये पोतनपुर के बाद के नाम हैं |

पोलासपुर

आगम साहित्य में पोलासपुर का उल्लेख दो स्थानों पर हुआ है | उपासक- दशांग के अनुसार पोलासपुर के बाहर सहस्राभ्रवन नामक उद्यान था | जितशत्रु वहां का राजा था | सद्दालपुत्र वहां का रहने वाला था जो पहले गोशालक का अनुयायी था, बाद में महावीर का अनुयायी बना था |

अन्तकृदशांग में पोलासपुर का उल्लेख आया है | उस समय वहां का राजा विजय था और रानी का नाम श्रीदेवी था | उद्यान का नाम श्रीवन था | राजकुमार अतिमुक्तक ने अत्यन्त लघुवय में महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी |

पोलासपुर नाम के दो पृथक-पृथक नगर थे यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते | यह सत्य है कि राजा और उद्यान के नाम दोनों में पृथक-पृथक थे | पर एक नगर के बाहर अनेक उद्यान हो सकते हैं | पहले राजा का नाम जितशत्रु और बाद के राजा का नाम विजय हो सकता है, या पहले के राजा का नाम विजय और दूसरे के राजा का नाम जितशत्रु हो सकता है| इस रूप में यह एक ही मगर हो सकता है |

प्रतिष्ठानपुर

प्रतिष्ठानपुर नाम के दो नगर थे | एक प्रतिष्ठानपुर गंगा के बायें तट पर जहाँ इस समय झूसी नगर है, पहले यहाँ पर चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी।

दूसरा प्रतिष्ठानपुर औरंगाबाद जिले में औरंगाबाद से दक्षिण में अट्ठाइस मील पर गोदावरी नदी के उत्तर किनारे पर था | यहां पर सातवाहन राजा की राजधानी थी | यह नगर एक समय अस्मक देश की राजधानी पोतनपुर के नाम से विख्यात था | इसका बर्तमान में नाम पैठन है | आचार्य कालक ने इसी प्रतिष्ठानपुर में सांवत्सरिक महापर्व पंचमी से चतुर्थी मनाया था |

बनारस

वाराणसी का अपना नाम बनारस है | यह नगरी वरणा और असि नदी के संगम पर बसी हुई है | इस नगर के बाहर कोष्ठक नामक चैत्य था | जहाँ पर भगवान महावीर विराजा करते थे | भगवान महावीर के परम भक्त चुलनीपिता और सुरा- देव यहीं के निवासी थे | यहां के राजा शंख ने महावीर के पास दीक्षा ली थी | भगवान महाबीर का यह मुख्य बिहार क्षेत्र था | इसके विशेष परिचय के लिए काशी देखिए |

ब्राह्मणग्राम

ब्राह्मण गांव के दो पाटक थे | एक नन्दपाटक और दूसरा उपनन्दपाटक | भगवान महावीर ने नन्दपाटक में नन्द के वहां पर पारणा किया था | यह ब्राह्मणग्राम, सुवर्णसन और चम्पा के बीच में था |

भंगि

साढ़े पच्चीस आर्य देशों में भंगि का भी नाम है | इसकी राजधानी 'पावा' थी | संमेतशिखर (पारसनाथ पहाड़) का सन्निकटवर्ती प्रदेश जिसमें हजारीबाग और मान- भूम जिलों के भाग सम्मिलित हैं, पहले मंगि जनपद के नाम से विश्रुत था |

भद्दीया

अंग देश का यह एक प्रसिद्ध नगर था | बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर इसका उल्लेख हुआ है | कल्पसूत्र के अनुसार भगवान ने दो चातुर्मास मद्दिया में किये थे और आवश्यक नियुक्ति वृत्ति के अनुसार एक चातुर्मास किया था |

भागलपुर से दक्षिण में आठ मील पर स्थित भद्दरिया गांव ही प्राचीन भद्दिया है | कितने ही विद्वान मुंगेर को भद्दिया का स्थानापन्न मानते हैं |

भद्दीलनगरी

भद्दिलनगरी उस समय गलय देश की राजधानी थी | आवश्यक निर्युषित वृत्ति के अनुसार भगवान महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में यहाँ पर एक चातुर्मारा किया था |

पटना से दक्षिण में १०० मील और नैऋत्य दक्षिण में अट्ठाइस मील की दूरी पर गया जिले में आये हुए हटबरिया और दन्तारा गांवों के पास उस समय मद्दिल- नगरी थी |

भोगपुर

यहाँ पर महिन्द्र क्षत्रिय ने भगवान महावीर पर आक्रमण किया था | यह गांव सुंसमार और नन्दीगांव के बीच में था | यह अधिक संभव लगता है कि यह स्थान कोशल भूमि में था |

मगध

जैन वाङ्मय में मगध का वर्णन अनेक स्थलों पर हुआ है | प्रस्तुत जनपद की सीमा उत्तर में गंगा, दक्षिण में शोण नदी, पूर्व में अंग और पश्चिम में गहन जंगलों तक फैली हुई थी | इस प्रकार दक्षिण बिहार मगध जनपद नाम से विश्रुत था | इस की राजधानी गिरिब्रज या राजगृह थी | महाभारत में इसका नाम कीटक भी आया है | वायुपुराण के अनुसार राजगृह कीटक था | शक्ति संगमतंत्र में कालेश्वर- कालभैरव वाराणसी से तप्तकुण्ड- सीताकुण्ड मुंगेर तक मगध देश माना है | इस तन्त्र के अभिमता- नुसार मगध का दक्षिणी भाग कीटक और उत्तरी भाग मगध है | प्राचीन मगध का विस्तार पश्चिम में कर्मनाशा नदी और दक्षिण में दमूद नदी के मूल स्रोत तक है |
हुयानुत्संग के अनुसार मगध जनपद की परिधि मण्डलाकाररूप में ६३३ मील थी | इसके उत्तर में गंगा, पश्चिम में वाराणसी, पूर्व में हिरण्यपर्वत और दक्षिण में सिंहभूमि थी | आचार्य बुद्धघोष ने मगध जनपद का नामकरण बतलाते हुए लिखा- "बहुधा पपंचानी" अनेक प्रकार की किंवदन्तियां प्रचलित है। एक किवदन्ती में बताया गया है कि जब राजा चेतिय असत्य भाषण के कारण पृथ्वी में प्रविष्ट होने लगा, तब उसके सन्निकट जो व्यक्ति सड़े थे, उन्होंने कहा- "मागंधम पविस" पृथ्वी में प्रवेश न करो, दूसरी किवदन्ती के अनुसार राजा चेतिय धरती में प्रविष्ट कर गया तो जो लोग पृथ्वी खोद रहे थे, उन्होंने देखा | तब वह बोला-'मागंधम करोथ'। इन अनुश्रुतियों का तथ्य यही है कि मगधा नामक क्षत्रियों की यह निवास भूमि थी, अतः यह मगध के नाम से विद्युत थी | महाकवि अहेद्दास ने मगध का सजीव चित्र उपस्थित किया है | उसने मगध को जम्बूद्वीप का भूषण माना है | यहाँ के पर्वत वृक्षावलियों से सुशोभित थे | कल- कल छल-छल नदियों की मधुर जंकार सुनाई देती थी |
सघन वृक्षावली होने से धूप सताती नहीं थी | सदा धान्य की खेती होती थी | इक्षु, तिल, तीसी, गुड, फोदों, मूंग, गेहूँ एवं उड़द आदि अनेक प्रकार के अन्न उत्पन्न होते थे | मगध धार्मिक-आर्थिक और राजनैतिक आदि सभी दृष्टियों से सम्पन्न था | वहाँ के निवासी तत्वचर्चा, स्वाध्याय आदि में तल्लीन रहते थे |

मगध ईसा के पूर्व छठी शताब्दी में जैन और बौद्ध श्रमणों की प्रवृत्तियों का मुख्य केन्द्र था | ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी से पांचवी शताब्दी तक यह कला-कौशल आदि की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध था | नीतिनिपुण चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना व वात्स्यायन ने कामसूत्र का निर्माण भी मगध में ही किया था | वहाँ के कुशल शासकों ने स्थान-स्थान पर मार्ग निर्माण कराया था और जावा बालि प्रभुति दीपों मे जहाजों के बेड़े भेजकर इन द्वीपों को बसाया था |

जैन और बौद्ध ग्रन्थों में मगध की परिगणना सोलह जनपदों में की गई है | अन्य देशवासियों की अपेक्षा मगधवासियों को अधिक बुद्धिमान् माना गया था | वे संकेत मात्र से समझ लेते थे | जबकि कौशलवासी उसे देखकर, पाचालवासी उसे आधा सुनकर और दक्षिणवासी पूरा सुनकर ही उसे समझ पाते थे |

साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित होकर ब्राह्मणों ने मगध को 'पापभूमि' कहा है | वहां जाने का भी उन्होंने निषेध किया है | प्राचीन तीर्थमाला में अठारहवीं सदी के किसी जैनयात्री ने प्रस्तुत मान्यता पर व्यंग करते हुए लिखा- अत्यन्त आश्चर्य है कि काशी में कौआ भी मर जाय तो वह सीधा गोक्ष जाता है किन्तु यदि कोई मानव मगध में मृत्यु को प्राप्त हो तो उसे गधे की योनि में जन्म लेना पड़ेगा |

मगध देश का प्रमुख नगर होने से राजगृह को मगधपुर भी कहा जाता था | भगवान् मुनिसुव्रत का जन्म भी मगध में ही हुआ था | महाभारत के युग में मगध के सम्राट् प्रतिवासुदेव जरासंध थे |
बुद्धिस्ट इण्डिया के अनुसार मगध-जनपद वर्तमान गया और पटना जिले के अन्तर्गत फैला हुआ था | उसके उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में सोन नदी, दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत का भाग और पूर्व में चम्पा नदी थी |

इसका विस्तार तीन सौ योजन (२३००) मील था और इसमें अस्सी हजार गांव थे |
वसुदेवहिण्डी के अनुसार मगध देश और कलिंग नरेश के बीच मनमुटाब चलता रहता था |

मथुरा

जिनसेनाचार्य कृत महापुराण में लिखा है कि भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने इस भूतल पर जिन ५२ देशों का निर्माण किया था उसमें शूरसेन भी था | जिसकी राजधानी मथुरा थी | सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ और तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का विहार भी मथुरा में हुआ था | तीर्थंकर महावीर मथुरा पधारे थे | अन्तिम केवली जम्बू- स्वामी के तप और निर्वाण की भूमि होने से भी मथुरा का महत्त्व रहा है | मथुरा कई तीर्थंकरों की विहारभूमि, अनेक मुनियों की तपोभूमि और अनेक महापुरुषों की निर्वाणभूमि है। जैनागमों की प्रसिद्ध तीन वाचनाओ में से एक वचना मथुरा में ही सम्पन्न हुई थी |
जो मथुरीवाचना कहलाती है | मथुरा के कंकाली टीला की खुदाई में जैन परम्परा से सम्बन्धित अनेक प्रकार की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हुई है | जिससे यह सिद्ध होता है कि मगुरा के साथ जैन इतिहास का गहरा सम्बन्ध रहा है |

बौद्ध धर्म के सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय की मान्यता है कि इस भूतल के मानव- समाज मे सर्वसम्मति से अपना जो राजा निर्वाचित किया था, यह महासम्मत कह लाता था | उसने मथुरा के निकटवर्ती भू-भाग में अपना प्रथम राज्य स्थापित किया था | इसलिए 'विनयपिटक' में मथुरा को इस भूतल का आदि राज्य कहा गया है |

अंगुत्तरनिकाय में १६ महाजन पदों का नामोल्लेख है, उनमें पहला नाम शूर- सेन जनपद का है |
हयूनसांग ने तत्कालीन मथुरा राज्य का क्षेत्रफल ५००० जी (८३३ मील के लगभग) बताया है | उसकी सीमाओं के सम्बन्ध में श्री कार्निधम का अनुमान है कि वह पश्चिम में भरतपुर और धोलपुर तक, पूर्व में जिझोती (प्राचीन बुन्देलखण्ड राज्य) तक तथा दक्षिण में ग्वालियर तक होगी। इस प्रकार उस समय भी मथुरा एक बड़ा राज्य रहा होगा |

वैदिक परम्परा में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गौरव की आधारशिलाएं सात महापुरिया मानी गई हैं-१ अयोध्या, २ मथुरा, ३ माया, ४ काशी, ५ कांची, ६ अवतिका. ७] द्वारिका | पद्मपुराण में मथुरा का महत्त्व सर्वोपरि मानते हुए कहा गया है कि यधपि काशी आदि सभी पुरिया मोक्षदायिनी है तथापि मथुरापुरी धन्य है | यह पूरी देवताओं के लिए भी दुर्लभ है | इसी का समर्थन 'गर्गसंहिता' में करते हुए बताया है कि पुरियों में रानी कृष्णपुरी मथुरा ब्रजेश्वरी है, तीश्वरी है, यज्ञ तपोनिधियों की ईश्वरी है, यह मोक्षप्रदायिनी धर्मपुरी मथुरा नमस्कार योग्य है |

मर्दना सन्निवेश

मर्दना संनिवेश की अवस्थिति कहां पर थी, यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते |
भगवान महावीर आलंभिया, कुंडाग आदि होते हुए यहाँ पर पधारे थे और यहां से बहुसालक होते हुए लोहाग्गला पधारे थे | मर्दना संनिवेश में बलदेव के आलय में भगवान ध्यानस्थ मुद्रा में हुए थे |

मलय गाँव

मलगांव उड़ीसा के उत्तर-पश्चिमी भाग में या गोंडवाना में होना चाहिए ऐसा मुनि श्री कल्याणविजय जी का अभिमत है | संगम ने भगवान को यहाँ पर कष्ट दिये थे |

मलयदेश

उस समय मलयदेश नाम के दो देश थे | भगवान महावीर ने जिस मलय में विचरण किया था वह मलय पटना से दक्षिण में और गया से नैऋत्य में था | इसकी राजधानी भद्दील थी | जहां पर भगवान ने वर्षावास व्यतीत किया था |

मलय सुन्दर वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था | भद्दिल की पहचान हजारीबाग जिले के भद्दिया नामक गांव से की जाती है | यह स्थान हंटरगंज से छह मील की दूरी पर कुलुहा पहाड़ी के पास है, जहां पर अनेक जैन ध्वसांवशेष मिले हैं |

इस प्रदेश का द्वितीय महत्वपूर्ण स्थान सम्मेदशिखर (पारसनाथ हिल) है | इसे समाधिगिरि, समिदगिरि, मल्ल पर्वत, और शिखर मी कहा गया है | इसको परिगणना शत्रुंजय गिरनार, आंबू और अष्टापद के साथ की गई है | यहाँ पर अनेक तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया था |

मल्लदेश

इस नाम के दो देश थे, जो एक पश्चिम मल्ल और दूसरा पूर्व मल्ल के नाम से विश्रुत था | मुलतान के आसपास का प्रदेश पश्चिम मल्ल और पावा कुशीनारा के पास की भूमि पूर्व मल्ल कहलाती थी | यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि भगवान महावीर पश्चिम महल में पधारे थे या नहीं | पर यह निश्चित है कि वे पूर्व मल्ल में अवश्य पधारे थे।

मल्ल राज्य वैशाली के पश्चिम और कौशल के पूर्व में था | गोरखपुर, सारन जिलों के अधिकांश भाग मल्लराज्य में थे | मगध से कौशल जाते समय मल्लदेश मार्ग में आता था |

महापुर

महापुर यह उत्तर भारत में था | महावीर के समय यहाँ का राजा बल था और रानी सुभद्रा थी | राजकुमार महाबल ने भगवान के उपदेश को सुनकर पहले श्रावक धर्म ग्रहण किया था और बाद में श्रमण धर्म |

महासेन उधान

यह उधान मध्यम पावा के बाहर था | इसी उधान में भगवान महावीर ने इन्द्रभूति आदि को दीक्षा प्रदान कर चतुर्विध तीर्थ की संस्थापना की थी |

मणिभद्र चैत्य

यह चैत्य मिथिला के बाहर था, जहां पर भगवान महावीर ने जैन ज्योतिष पर प्रकाश डाला था | जब भी भगवान मिथिला पधारते थे, तब वे माणिभद्र चैत्य में विराजते थे |

मालव

प्राचीनकाल में मालव नाम के दो देश विख्यात थे | प्रथम मुलतान के आस- पास का देश हे | जैनागमों में जिस मालव को अनायें देश माना है वह यही मालव है | दूसरा मालव आज का मालवा है | पूर्व वह अवन्ती जनपद कहलाता था | आज वह मालव और मध्यभारत के नाम से प्रसिद्ध है |

मिथिला

विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गडकी और पूर्व में मही नदी तक थी |
जातक की दृष्टि से इस राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन था | उसमें सोलह सहस्र गाँव थे |
सुरुचि जातक से मिथिला के विस्तार का पता लगता है | वाराणसी के राजा ने यह निर्णय लिया कि वह अपनी पुत्री का विवाह ऐसे राजपुत्र से करेगा जो एक- पत्नीव्रत का पालन करेगा | मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ विवाह की वार्ता चल रही थी | एकपत्नीव्रत की बात को सुनकर वहां के मंत्रियों ने कहा- मिथिला का विस्तार सात योजन है | समूचे राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन है | हमारा राज्य बहुत बड़ा है | ऐसे राज्य में राजा के अन्तःपुर में सोलह हजार रानिया अवश्य होनी चाहिए |

रामायण में मिथिला को जनकपुरी कहा है | विविध तीर्थकल्प में इस देश को तिरहुत्ति कहा है। और मिथिला को जगती (प्राकृत जगई) कहा है |
इसके सन्निकट ही महाराजा जनक के भ्राता कनक थे | उनके नाम से कनकपुर बसा हुआ है | मिथिला से जैन श्रमणों की शाखा मैथिलिया निकली |
भगवान महावीर ने यहां पर छह चातुर्मात बिताए | आठवे गणधर अंकपित की यह जन्मभूमि थी | प्रत्येकबुद्ध नमि को कडुण की ध्वनि सुनकर यहीं पर वैराग्य उदद्ध हुआ था | चतुर्थ निहनाव अशवमित्र ने वीर निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात् 'सामुच्छेदिक नाद का यही से प्रवर्तन किया था | दश पूर्वधारी आर्य महा- गिरि का यह मुख्य रूप से विहार क्षेत्र रहा है | बाणगंगा और गंडक में दो नदियाँ इस नगर को परिवेष्ठित कर बहती थी | जैन आगमों में उल्लिखित दस राजधानियों में मिथिला का भी नाम है |

मिथिला एक समृद्ध राष्ट्र था | जिनप्रभसूरि के समय वहाँ का प्रत्येक घर कदली-वन से सुशोभित था | खीर यहाँ का प्रिय भोजन माना जाता था | स्थान- स्थान पर वापी, कूप और तालाब मिलते थे | यहाँ की सामान्य जनता भी संस्कृत भाषा की ज्ञाता थी | यहाँ के लोग धर्मशास्त्रों में निपुण थे |

ईस्वी सन् की ६ वीं सदी में यहां पर प्रकाण्ड पंडित मंडनमिश्र निवास करते थे, जिनकी पत्नी ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थं कर पराजित किया था | महान नैयायिक वाचस्पति मिश्र की यह जन्मभूमि थी और मैथिल कवि विधापति यहां के राजदरवार में रहते थे |

वर्तमान में नेपाल की सीमा के अन्तर्गत (जहाँ पर मुजपफरपुर और दरभंगा जिले मिलते हैं) छोटे नगर 'जनकपुर' को प्राचीन मिथिला कहा जाता है | कितने ही विद्वान सीतामढ़ी के पास महिला नामक स्थान को प्राचीन मिथिला का अपभ्रंश मानते हैं |

मिन्ढ़िया

मिन्ढ़िया चम्पा से मध्यम पावा जाते हुए मार्ग में आता था | यहां पर चमरेन्द्र नामक असुरेन्द्र भगवान को वन्दन करने के लिए उपस्थित हुआ था |

मृगग्राम

मृगग्राम उत्तर भारत में कहीं पर होना चाहिए | उसका निश्चित अता-पता बताना कठिन है | यहां पर भगवान महावीर ने मृगापुत्र के पूर्व भवों के दुष्कृत कृत्यों का वर्णन किया था |

मेंढियागांव

यह श्रावस्ती के संनिकट कौशाम्बी से जाते हुए रास्ते में आता था | गोशालक ने महावीर पर जो तेजोलेश्या प्रक्षिप्त की थी उसके छह माह के पश्चात् भगवान वहाँ पर पधारे थे | सिंह अनगार मेंढियगांव में जाकर रेवती के यहां से औषध लाये थे और भगवान रोगमुक्त हुए थे |

मोकानगरी

मोका नगरी की अवस्थिति के सम्बन्ध में मुनि श्री कल्याणविजय जी का अभिमत है कि पंजाब प्रदेश में अवस्थित वर्तमान में जो मोगामण्डी है, वही प्राचीन मोकानगरी होनी चाहिए | भगवान महावीर यहां पर पधारे थे और नन्दनचैत्य में विराजे थे |

मोराक सन्निवेश

मोराक संनिवेश यह वैशाली के संनिकट था | भगवान महावीर कोल्लाक संनिवेश से यहां पर पधारे थे | दूइज्जत नामक तापसों के आश्रम में विराजे थे |

मौर्य सन्निवेश

मौर्य संनिवेश काशी देश के अन्तर्गत होना चाहिए | मंडिक और मौर्यपुत्र गणधरों की यह जन्मस्थली थी |

राजगृह

मगध की राजधानी राजगृह थी, जिसे मगधपुर, क्षितिप्रतिष्ठित, चणकपुर, ऋपमपुर, और कुशाग्रपुर आदि अनेक नामों से पुकारा जाता रहा है |
आवश्यक चूर्णि के अनुसार कुशाग्रपुर में प्रायः आग लग जाती थी | अतः राजा श्रेणिक ने राजगृह बसाया । महाभारत युग में राजगृह में जरासंध राज्य करता था। रामायण काल में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म राजगृह में हुआ था, दिगम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर का प्रथम उपदेश और संघ की संस्थापनाराजगृह में हुई थी |

अन्तिम केवली जम्मू की जन्मस्थली और निर्माणस्थली भी राजगृह रही है | धन्ना और शालीभद्र जैसे धन कुबेरराजगृह के निवासी थे | परम साहसी महान भक्त सेठ सुदर्शन भी राजगृह का रहने वाला था | प्रतिमामूर्ति अभयकुमार आदि अनेक महान् आत्माओं को जन्म देने का श्रेय राजगृह को था |
पांच पहाड़ियों से घिरे होने के कारण उसे गिरियज भी कहते थे | उन पहाड़ियों के नाम जैन, बौद्ध, और वैदिक उन तीनों ही परम्पराओं में पृथक-पृथक रहे हैं | ये पहाड़िया आज भी राजगृह में है | वैभार और विपुल पहाडियों का वर्णन जैन ग्रन्थों में विशेष रूप से आया है | वृक्षादि से वे खूब हरी-भरी थी | यहां अनेक जैन- श्रमणों ने निर्वाण प्राप्त किया था | वैभार पहाड़ी के नीचे ही तपोदा, और महातपोपनीरप्रम नामक उष्ण पानी का एक विशाल कुण्ड था | वर्तमान में भी वह राजगिर में तपोवन नाम से प्रसिद्ध है |

भगवान महावीर ने अनेक चातुर्मास वहां व्यतीत किये | दो सौ से भी अधिक बार उनके समवसरण होने के उल्लेख आगम साहित्य में मिलते है |
यहा पर गुणसिल मंडिकुच्छ और मोगारिपाणि आदि उधान थे | भगवान महावीर प्रायः गुणसिल (वर्तमान में जिसे गुणावा कहते है) उधान में ठहरा करते थे |
राजगृह व्यापार का प्रमुख केन्द्र था | वहां पर दूर-दूर से व्यापारी आया करते थे | वहां से तक्षशिला, प्रतिष्ठान, कपिलवस्तु, कुणीनारा, प्रभृति भारत के प्रसिद्ध नगरों में जाने के मार्ग थे | बौद्ध ग्रन्थों में यहां के सुन्दर धान के खेतों का वर्णन है |

आगम साहित्य में राजगृह को प्रत्यक्ष देवलोकभूत एवं अलकापुरी कहा है | महाकवि पुष्पदन्त ने लिखा है सोने, चांदी से निर्मित राजगृह ऐसी प्रतिभासित होती थी कि स्वर्ग से अलकापुरी ही पृथ्वी पर आ गई है | रविषेणाचार्य ने राजगृह को धरती का यौवन कहा है | अन्य अनेक कवियों ने राजगृह के महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है।

जब चीनी यात्री ह्वेनसांग यहाँ पर आया था तब राजगृह पूर्व जैसा नहीं था | आज वहां के निवासी दरिद्र और अभावग्रस्त हैं | आजकल राजगृह 'राजगिर' के नाम से विश्रुत है | राजगिर बिहार प्रान्त में पटना से पूर्व और गया से पूर्वोत्तर में अवस्थित है |

लोहागर्ला

लोहार्गला में भगवान महावीर को गुप्तचर समझकर बन्दी बना दिया था | उस समय वहाँ का राजा जितशत्रु था | लोहार्गला की अवस्थिति कहां थी, यह निश्चित रूप से कहना कठिन है |
मुनि श्री कल्याणविजय जी ने लोहार्गला से मिलते-जुलते तीन स्थल बताये हैं। वे ये हैं-
(१) वराहपुराण के अनुसार हिमालय के अंचल में लोहार्गल नामक एक स्थल था |
(२) पुष्कर-सामोद के पास लोहार्गला नामक वैष्णवों का प्राचीन तीर्थ है |
(३) शाहाबाद जिले की दक्षिणी हद में 'लोहारडगा' नामक प्राचीन शहर है |

इन तीन में से किस लोहार्गला में भगवान महावीर पधारे थे | भगवान महावीर का विहारक्रम इस प्रकार था - वे आलंभिया से कुंडाक, महंना, बहुसाल होकर लोहार्गला पधारे थे और वहां से पुरिमताल पधारे थे | इस क्रम पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि पुष्कर के समीप जो लोहार्गला है वह, शाहबाद जिले का लोहरडगा है, ये दोनों तो महावीर के विहार क्षेत्र में नहीं आते हैं, चूंकि पुरिमताल से वे दोनों बहुत दूर हैं। अब रहा हिमालय के अंचल में रहा हुआ लोहार्गला | संभव है इसकी अवस्थिति हिमालय की दक्षिणी तलहट्टी में कहीं पर रही होगी, और वहां पर महावीर का पदार्पण हुआ होगा | यह भी संभव है कि अयोध्या प्रान्त में ही नामक लोहार्गला कोई स्थान रहा हो।

बंग

बंग की गणना प्राचीन जनपदों में की गई है | वह व्यापार का मुख्य केन्द्र था | जल और स्थल दोनों ही मार्गों से वहां माल आता-जाता था | यह जनपद अंग के पूर्व और सुह्य के उत्तर-पूर्व में स्थित था | बौद्ध ग्रन्थ महावंश में बंग जनपद के अधिपति सिंहबाहु राजा का वर्णन है | जिसके पुत्र विजय ने लंका में जाकर प्रथम राज्य स्थापित किया था | मिलिन्दपण्हो में बंग का उल्लेख है | वहां नाविकों का नावें लेकर व्यापारार्थं जाना दिखाया गया है | दीपवंश और महावंस में बर्द्धमान नगर का वर्णन है | डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का मन्तव्य है कि वह आधुनिक बंगाल के वर्द्धमान नगर से मिलाया जा सकता है | बंग को पूर्वी बंगाल माना जा सकता है | आदिपुराण के अनुसार भरत चक्रवर्ती ने बंग जनपद को अपने अधीन किया था |

प्राचीन युग में बंग विभिन्न नामों से पुकारा जाता था | पूर्वीय बंगाल को समतट, पश्चिम बंगाल को लाट, उत्तरी बंगाल को पुण्ड और आसाम को कामरूप कहते थे | उसका एक नाम गोड भी था |

वत्स

वत्स काशी से लगा हुआ एक जनपद था | बौद्ध ग्रन्थों में इसे वंश लिखा है | जैन, बौद्ध और वैदिक वाङ्मय में जिस उदयन का उल्लेख है वह वत्साधिपति था | आचार्य आषाढ अपने शिष्यों सहित यहाँ पर रहे थे | वस्स की राजधानी कौशाम्बी थी | विशेष परिचय के लिए कौशाम्बी देखें |

वर्द्धमानपुर

वर्द्धमानपुर के विजयवर्द्धन उधन में भगवान महावीर पधारे थे | राजा विजयमित्र और रानी अंजू भगवान के दर्शनार्थ उपस्थित हुए | भगवान ने अंजू के पूर्वभवों का कथन किया |

मुनि श्री कल्याणविजय जी के अभिमतानुसार सूबे बंगाल का आधुनिक वर्दवान नगर जो कलकत्ते से सडसठ मील पश्चिम-दक्षिण में अवस्थित है, यह प्राचीन वर्धमानपुर हो सकता है |

वाणिज्यग्राम

वाणिज्यग्राम वैशाली के संनिकट गंडकी नदी के दक्षिण तट पर था | उस युग में वह व्यापार के प्रमुख केन्द्रों से था | महावीर के परम उपासक आनन्द गाथापति यहीं के निवासी थे | आधुनिक बसाड़पट्टी के पास जो बजिया नामक गांव है वही प्राचीन वाणिज्य गाँव है |

वालुका ग्राम

वालुकाग्राम प्राचीन कलिंग और आधुनिक उड़ीसा के उत्तर पश्चिम मे यथा | संगमक देव ने यहाँ पर भगवान महावीर को अनेक प्रकार के कष्ट दिये थे |

विजयपुर

विजयपुर के बाहर नन्दनवन नामक उधान था | भगवान महावीर यहाँ पर पधारे | प्रथम यात्रा में भगवान महावीर से राजकुमार सुवासव ने श्रावकव्रत ग्रहण किये और द्वितीय बार भगवान के पधारने पर वह श्रमण बना |
विजयपुर उत्तर बंगाल में गंगा के किनारे पर था, जो आजकल विजयनगर के नाम से प्रसिद्ध है | प्रस्तुत प्रदेश पहले पुण्डदेश के नाम विश्रुत था |

विशाखा

विशाखा की अवस्थिति के सम्बन्ध में विद्वानों में एकमत नहीं है | कितने ही विज्ञो का अभिमत है कि अयोध्या का अपर नाम विशाखा था | कितने ही विद्वानों का कथन है कि वर्तमान में जो लखनऊ है, वही प्राचीन विशाखा है | चीनी यात्री ह्वेनसांग का मत है कि कौशाम्बी से विशाखा पांचसों मील पर थी | मुनि श्री कल्याणविजय जी का मत है कि विशाखा नगरी कौशल देश मे अयोध्या के पास एक स्वतंत्र नगरी थी | भगवान महावीर का यहाँ पर पदार्पण हुआ।

वीतमय

वीतमय नगर सिंधु-सौवीर देश की राजधानी थी | भगवान महावीर वहा पर पधारे थे और उसके मृगवन उद्यान में विराजे थे | वीतमय के अधिपति राजा उद्रायन को दीक्षा प्रदान की थी | विज्ञो का मत है कि पंजाब में जो मेरा गाँव है, वही प्राचीन पीतमय था। विशेष सिन्धु-सौवीर देखें |

वीरपुर

भगवान महावीर एकबार वीरपुर पधारे थे और राजकुमार सुजात को उन्होंने श्रावक धर्म में दीक्षित किया था और जब कुछ समय के पश्चात् वहाँ पर पधारे तो उसे आहर्रती दीक्षा प्रदान की |

तहसीन मुहमदाबाद में गाजीपुर से बाईस मील पर जो बारा गाँव है, वही प्राचीन वीरपुर होना चाहिए | चूंकि वहाँ पर प्राचीन सिक्के आदि वस्तुएं उपलब्ध हुई हैं।

वैशाली

वैशाली भारत की एक प्राचीन नगरी थी | जिसका उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक वाङ्मय में हुआ है | श्री जयचन्द विधालंकार के अनुसार वैशाली न केवल लिच्छवियों की राजधानी थी किन्तु सम्पूर्ण वज्जी-संघ की राजधानी थी | राकहिल ने लिखा है कि बौद्ध परम्परा से ज्ञात होता है कि वैशाली नगर में तीन जिले थे और ये विभाग संभवतः किन्हीं तीन वंशों की राजधानियां थी | पण्ण जातक के उल्लेखानुसार वैशाली नगर में दो-दो मील पर एक-एक परकोटा बना हुआ था, और उसमें तीन स्थानों पर अट्टालिकाओं सहित प्रवेश द्वार बने हुए थे | लोमहंस जातक में भी इसका उल्लेख है |
सहित वैशाली नगर से पश्चिम द्वार से निकले तो दाहिनी ओर घूमकर नगर को देखकर शिष्यों से कहा- यह मेरी अन्तिम विदा है |
युआन च्यान्ड ने लिखा - इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग ५ हजार 'ली' है | भूमि उत्तम और उपजाऊ है | फल-फूल बहुत अधिक होते है | विशेषकर आम और मोच (केला) अधिकता से होते हैं और महंगे बिकते हैं | जलवायु सहज और मध्यम प्रकार की है तथा मनुष्यों का आचरण सुद्ध और सच्चा है | बौद्ध बौर बौद्धेतर दोनों ही मिलकर रहते हैं | यहाँ कई सौ संघाराम हैं पर सभी खंडहर हो गये हैं | तीन या पांच ऐसे है जिनमें बहुत ही कम संख्या में साधु रहते हैं | जैनधर्मानुयायी काफी संख्या में है |

वैशाली की राजधानी बहुत-कुछ खंडहर है | पुराने नगर का घेरा ६० से ७० 'ली' तक है और राजमहल का विस्तार ४-५ 'ली' के घेरे में है | बहुत धोड़े से लोग इसमें निवास करते हैं | राजधानी से पश्चिमोत्तर ५-६ 'ली' की दूरी पर एक संघाराम है | इसमें कुछ साधु रहते हैं | ये लोग सम्मतीय संस्था के अनुसार हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायी है |

शालिशीर्ष

शालिशीर्ष की अवस्थिति वैशाली और भट्टिका के मध्य में थी | संभव है यह अंग देश की वायव्य सीमा पर रहा होगा | चूंकि महावीर वहाँ से भद्रिका पधारे थे | शालिशीर्ष के उद्यान में कटपूतना देवी ने भगवान को शीत उपसर्ग दिया था, समभाव से सहन करने से लोकावधिज्ञान की उपलब्धि हुई थी |

श्रावस्ती

यह कौशल राज्य की राजधानी थी | आधुनिक विद्वानों ने इसकी पहचान सहेट-महेट से की है | सहेट गोंडा जिले में है और महेट बहराईच जिले में | महेट उत्तर में है और सहेट दक्षिण में | यह स्थान उत्तर-पूर्वीय रेलवे के बलरामपुर स्टेशन से जो सड़क जाती है, उससे दस मील दूर है | बहराईच से दह २६ मील पर अवस्थित है |

विद्वान बी. स्मिथ के अभिमतानुसार श्रावस्ती नेपाल देश के खजूरा प्रान्त मे है और वह बालपुर की उत्तर दिशा में तथा नेपालगंज के सन्निकट उत्तर पूर्वीय खजूरा में दिशा में है | युआन च्यान्ड ने श्रावस्ती को जनपद माना है और उसका निस्तार छह हजार ली, उसकी राजधानी को 'प्रासाद नगर कहा है, जिसका विस्तार बीसी माना है |

जैन दृष्टि से यह नगरी अचिरावती (राप्ती) नदी के किनारे बसी थी | जिसमें बहुत कम पानी रहता था, जिसे पार कर जन श्रमण भिक्षा के लिए जाते थे | कभी- कभी उसमें बहुत तेज बाद भी आ जाती थी |
श्रावस्ती बौद्ध और जैन संस्कृति का केन्द्रस्थान रहा है | केशो और गौतम का ऐतिहासिक संवाद वहीं हुआ | अनेक ऐतिहासिक प्रसंग उस भूमि से जुड़े हुए हैं | भगवान् महावीर ने छद्मस्यावस्था में दसवाँ चातुर्मास वहां पर किया था | केवलज्ञानः होने पर भी वे अनेक बार वहां पर पधारे थे और सैंकड़ों व्यक्तियों को प्रवज्या प्रदान की थी और हजारों को उपासक बनाया था | श्रावस्ती के कोष्ठकोद्यान में गोशालक ने तेजोलेश्या से सुनक्षत्र और सर्वानुभूति मुनियों को मारा था और भगवान महावीर पर मी तेजोलेश्या प्रक्षिप्त की थी | गोशालक का परम उपासक अयंपुल व हालाहला कुमारिन यहीं के रहने वाले थे |

श्वेताम्बिका

यह जैनागमों में वर्णित साढ़े पच्चीस आर्यदेशों में से 'केकय' देश की राजधानी थी | वहाँ के राजा प्रदेशी को केशीकुमार श्रमण ने आस्तिक बनाया था | बौद्ध ग्रन्थों में 'सेयविया' को सेतव्वा कहा है और उसे कोशल देश की नगरी बताया है | बौद्ध ग्रंथो की दृष्टि से श्रावस्ती से कपिलवस्तु जाते समय श्वेताम्बिका बीच में आती थी |
जैन वर्णनों से श्वेताम्बिका श्रावस्ती से पूर्वोत्तर में अवस्थित थी | मुनि श्री कल्याणविजय जी के अभिमतानुसार उत्तर-पश्चिम बिहार के मोतीहारी शहर से पूर्व लगभग पैंतीस मील पर अवस्थित सीमामढ़ी यह श्वेताम्बिका का अपभ्रंश है |

सानुलट्ठियगाम

सानुलट्ठियगाम या सानुयष्टिक कहां पर था ? यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता | संभव यही है कि यह स्थान दृढ़भूमि में कहीं पर था जो प्राचीन कलिंग के पश्चिमीय अंचल में थी |
इसी गाँव के बाहर भगवान महावीर ने भद्र, महभद्र और सर्वतोभद्र प्रतिमा पूर्वक ध्यान किया था |

सिन्धु देश

सिन्धु-सौवीर जनपद में सिन्धु और सौवीर दोनों सम्मिलित थे | अभयदेव के अभिमतानुसार सौवीर (सिन्ध) सिंघु नदी के सन्निकट होने के कारण सिंधु सोवीर कहा जाता था | किन्तु बौद्ध वाङ्मय में सिंधु और सौवीर को पृथक-पृथक न मानकर, रोरुक को सौवीर की राजधानी कहा है |

महावीर के समय सिंधु और सौवीर एक संयुक्त राज्य था। उसके पश्चात् सौवीर प्रथक हुआ और आधुनिक पंजाब का दक्षिणी भाग सिन्धु में सम्मिलित हो गया | आज कल सिंधु 'सिंध' के नाम से प्रसिद्ध है और कच्छ (जो पूर्वकाल में सौवीर कहलाता था) व पंजाब के बीच में फैला हुआ है |
वीतभयपट्टन सिंधु सौवीर की राजधानी थी | इसका अपर नाम कुम्भार प्रक्षेप (कुम्भार पक्खेव) बतया गया है | यह नगर सिणवल्लि में अवस्थित था | सिणवल्लि एक निर्जन रेगिस्थान था, जहाँ पर व्यापारियों को क्षुधा और पिपासा से पीड़ित होकर अपने अमुल्य जीवन से हाथ धोने पड़ते थे |

जैन साहित्य की दृष्टि से सिनपल्ली के दीर्घ मार्ग निर्जल और छाया रहित थे | केवल उसमें एक ही वृक्ष था | देवप्रभसूरि ने पाण्डव चरित्र में लिखा - जरासंघ के साथ यादवों ने सिनपल्ली के पास सरस्वती नदी के तट पर युद्ध किया था और जीत होने पर आनन्दव ये नाचे थे, जिससे सिनपल्ली आनन्दपुर के नाम से प्रसिद्ध हुई | मुनि श्री कल्याणविजय जी के अनुसार बीकानेर राज्य के उत्तर प्रदेश में अवस्थित आदनपुर ही आनन्दपुर होना चाहिए |

सुरभिपुर

सुरभिपुर विदेह से मगध जाते हुए मार्ग में आता था और गंगा के उत्तर तट पर था | संभव है यह विदेह भूमि की दक्षिण सीमा का अन्तिम स्थान रहा हो | भगवान श्वेताम्बी से विहार कर अनुक्रम से यहाँ पधारे थे और नौका से गंगा को पार कर थूणाक संनिवेश पधारे थे |

सुवर्णखल

कोल्लाक संनिवेश से चम्पा की ओर जाते समय सुवर्णखल बीच में आता था | सुवर्णखल राजगृह से पूर्व दिशा में था और वाचला के पास जो कनकखल आश्रम था, उससे भिन्न था |

सुवर्णबालुका

यह नदी उत्तर और दक्षिण वाचला के बीच में थी, जहाँ पर भगवान महावीर का अर्थवस्त्र कधे से नीचे गिर पड़ा था |

सुंसमार

भगवान महावीर की शरण ग्रहण कर चमरेन्द्र प्रथम देवलोक में गया था | सुंसुमार मिर्जापुर जिला में वर्तमान चुनार के पास एक पहाड़ी नगर था | कितने हो विद्वान सुंसुमार को भर्ग देश की राजधानी बताते हैं |

सुहम्म

कितने ही विद्वानों का मन्तव्य है कि हुगली और मिदनापुर के मध्य का प्रदेश सुहम्म है जो उड़ीसा की सीमा पर फैला हुआ दक्षिण बंग का प्रदेश है | इसकी राजधानी ताम्रलिप्त थी |

कितने ही अन्य विद्वान हजारीबाग, संथाल परगना जिलों के कुछ भाग को सुह्म मानते हैं | वैजयन्ती कोशकार ने सुह्म को ही राढ का नामान्तर माना है | मुनि कल्याणविजय जी ने हजारीबाग से पूर्व में जहाँ पहले भंगी देश था, उसका पूर्व प्रदेश राढ का दक्षिणी-पश्चिमी कुछ भाग और दक्षिणी बंग का थोड़ा पश्चिमी भाग सुह्म माना है | भगवान महावीर सुह्म में पधारे थे।

हस्तिशीर्ष

इस गाँव के बाहर शमशान भूमि में भगवान ने ध्यान किया था और संगमक ने महावीर को कष्ट दिया था |

हस्तिशीर्षनगर

हस्तिशीर्षनगर के बाहर पुष्पकरंडक नामक उद्यान था | भगवान महावीर जब भी वहाँ पर पधारते तब उस उद्धान में ठहरते थे | उस समय राजा अदीनशत्रु और रानी धारणी भगवान को वन्दन के लिए पहुंचती | भगवान ने राजकुमार सुबाहु को पहले श्रावकधर्म में दीक्षित किया और उसके पश्चात् श्रमणधर्म में हस्तिशीर्षनगर की अवस्थिति कुरुदेश के पास में थी, चूंकि कुरुदेश की सीमा उससे मिलती थी |

 

विहारस्थल नाम-कोष

 

भूमिका - इस ग्रंथ के ४८ चित्रो के सामने दिये गये परिषद के लेख में भगवान के विहार और चातुर्मास के विषय में जिन-जिन स्थलों का निर्देश हुआ है, (लगभग) उसी के ही परिचय हेतु यह कोष है | उसमें अनेक स्थलों के वर्तमान स्थान कहाँ है उसकी जानकारी नहीं हो सकी है | कितने ही स्थलों की जानकारी हुई है, उनका उस-उस स्थल पर थोड़ा-बहुत निर्देश कर दिया गया है |

अपापपुरी - पहले इस नगरी का नाम अपापा-पुरी (पाप रहित नगरी) था, परन्तु भगवान श्री महवीर का देहान्त निर्वाण होने पर लोगों ने इसका नाम पावापुरी-पापापुरी(पाप नगरी) रख दिया | उस समय पावा नाम के तीन स्थल थे, अत: अब इस पावा को "पावा मध्यमा'' नाम से प्रसिद्ध पावा समझना | ( चौमासा- ४२ वां )

अस्थिकगाम - विदेह जनपद में था, जिसकी सीमा पर शूलपाणि यक्ष का चैत्य था |

आलम्भिका - राजगृह नगर से बनारस जाते समय बीच में आता था | ( चौमासा ७ वां )

ऋजुवाली(लु) का नदी - इस नदी का स्थान ज्रम्भिकग्राम के पास, श्यामक नाम के खेत में, साल (शाल) वृक्ष के नीचे, जहां भगवान को केवलज्ञान हुआ, उसके समीप था |

कनकखल आश्रम - श्वेतम्बिका नगरी के समीप का स्थान | इस आश्रम में ही क्रूर और भयंकर द्रष्टिविष चंड्कौशिक सर्प ने भगवान पर उपसर्ग किया था, उसे प्रतिबोध कर के भगवान १५ दिन तक वही ध्यानस्थ रहे थे |

कुमार (कर्मार) गाम - भगवान की जन्मभूमि क्षत्रियकुण्ड के समीप का गाँव | दीक्षा की प्रथम रात्री मे भगवान यही रहे और गोपाल ने प्रथम उपसर्ग यही किया |

काशी - वाराणसी के आस -पास का प्रदेश | यह काशी एक राष्ट्र गिना जाता था और वाराणसी उसकी राजधानी थी | महावीर के समय में वह कौशल राष्ट्र में मानी जाती थी |

कोल्लाक सन्निवेश - वाणिज्य गाँव के समीप का गाँव | भगवान ने दीक्षा के दूसरे दिन तप का पारणा यही किया था | कौशल-जनपद - उत्तर प्रदेश में आया हुआ एक देश | उसकी राजधानी श्रावस्ती थी |

कौशाम्बी - उत्तर प्रदेश में प्रयाग के समीप का प्रदेश | महावीर के समय में यह नगरी वत्सदेश की राजधानी थी | यहाँ का राजा उदयन और उसकी माता राजमाता मृगावती महावीर के परम भक्त थे |

क्षत्रियकुण्ड गाम - बिहार जम्मुई स्टेशन से १८ माईल दूर मुंगेर जिल्ला का लछवाड़ा ग्राम है | यहा से ३ माईल दूर क्षत्रियकुण्ड तीर्थ है, उस पर राजा सिद्दार्थ का आधिपत्य था | एक पध रचाने मे महावीर का "वैशालिक" नाम से उल्लेख किया है |

गंगा नदी - भारतवर्ष की दो बड़ी मानीजाने वाली नादियों में से एक नदी | जैन शास्त्र में इसका मूल क्षुद्र-चुल्ल हिमवन्त पर्वतवती पद्मद्रह में दिखाया गया है | परन्तु वर्तमान भौगोलिक आज उसका उद्धभव स्थान हिमालयवर्ती गंगोत्री बतलाते है | अकेले भगवान ने नौका द्वारा छद्मस्थावस्था में दो बार और केवलज्ञान होने के पश्चात अनेक बार अपने श्रमण- श्रमणी संघ के साथ जलमार्गी नौका साधन द्वारा गंगा पार की थी |

गुणशील चैत्य - राजगृह का सुप्रसिद्ध उधान | भगवान बार बार इस उधान मे ठहरते थे | यह उनका धर्म प्रचार का प्रधान केंद्र था | ११ गणधरो ने यही निर्वाण प्राप्त किया था | मूर्तिपूजक संप्रदाय में सर्वोत्तम आदरपात्र और पूजनीय 'कल्पसूत्र' शास्त्र के अन्तिम मूलपाठ में अपने आज्ञावर्ती चतुर्विध संघ के समक्ष प्रस्तुत कल्पसूत्र का वांचन "गुणशील-गुणशील चैत्य" में भगवान के द्वारा किए जाने का जो उल्लेख मिलता है, वह यही चैत्य है |

चम्पा ( नगरी ) - भागलपुर के समीप प्रख्यात और जैन इतिहास की प्रसिद्ध नगरी | भगवान जब चम्पा में पधारते तब वहाँ के पूर्णभद्र चैत्य नाम के प्रसिद्ध उधान में ठहरते थे | पहले वह अंग देश की राजधानी थी | परन्तु बाद मे कूणिक ने मगध की राजधानी बनायी थी | ( चौ. ३, १२ )

छ्म्माणि ( षनमानी ) - पावा मध्यमा के समीप, चम्पानगरी जाते समय मध्य में गंगा के समीप यह स्थान था | यहा भगवान के कान मे काश की काष्ठशूल डालने का प्रसंग हुआ था और पास मे उसे निकालने का भी उपसर्ग हुआ था |

ज्रम्भिक (का) गाम - ऋजुवलिका नदी के समीप आया हुआ एक गाँव है | इसी नदी के तटवर्ती खेत मे भगवान को केवलज्ञान हुआ था |

ज्ञातखंडवन - क्षत्रियकुण्ड नगर के बाहर आया हुआ उधान है, जहाँ भगवान ने दीक्षा-चरित्र-व्रत ग्रहण किया था |

द्र्ढभूमि - महावीर के समय मे म्लेच्छ बहुल जनसंख्या वाला एक प्रदेश है, जिस भूमि के पेढ़ालग्राम के पोलास चैत्य में संगम देव ने एक रात में बीस उपसर्ग किए थे | आज का गोंडवा का प्रदेश यहा स्थल है, ऐसा विद्वान मानते है |
नालन्दा - प्राचीन राजग्रह का अनेक धनाध्यों से समृद्ध, सुविख्यात और विशाल उपनगर प्रसिद्ध जो 'नालन्दापीठ' वही यह स्थल है | ( चौ.२,३४,३८ )

पावा (पावापुरी) - पावाएँ कुल तीन थी | यह पावा मगध-जनपदवर्ती थी और वह " पावा मध्यमा" अथवा "मध्यमा पावा" अथवा "मध्यमा" के नाम से पहचानी जाती थी | आज वह बिहार प्रान्तवर्ती है | भगवान का अन्तिम चातुर्मास और निर्वाण यही हुआ था | जैनो का यह आज पवित्र तीर्थधाम है |

पृष्ठ चम्पा - चम्पा का ही एक शाखानगर | (चौ. ४)

प्रणीतभूमि- बंगाल प्रदेश का एक विभाग है | महावीर के समय में उसकी अनार्य प्रदेश मे गणना होती थी, बाद मे यह आर्य प्रदेश हुआ | लाढ-राढ इसी के ही भाग थे | ( चौ.९ वां )

ब्राह्मण कुण्डगाम - मूलनाम कुण्डगाम अथवा कुण्डपुर था | उसके दो विभाग थे | एक उत्तर का और दूसरा दक्षिण का | उत्तर विभाग क्षत्रिय प्रधान था और दक्षिण विभाग ब्राह्मण प्रधान था | उत्तर विभाग क्षत्रिय-कुण्डगाम और दक्षिण विभाग ब्राह्मण-कुण्डगाम से प्रसिद्ध था |

भद्रिका(भद्दीया) - अंगदेश की प्रसिद्ध नगरी | यहा भगवान ने छद्मस्थावस्था में चौमासा किया था | ( चौ.६ वां )

भद्दीलनगरी - महावीर के समय की मलयदेश की राजधानी | ( चौ.५ वां )

मध्यमा - पावा का ही उपनाम रूप से प्रचलित हुआ और समय व्यतीत होते पर्यायवाची हुआ, दूसरा नाम 'मध्यमा' था | (चौ. ४२ वां )

महासेन उधान - पावामध्यमा नगर का बाहरी उधानस्थल है | केवलज्ञान हुआ उसी रात्री को ही भगवान ने ४८ कोस का विहार करके दूसरे दिन जिस वन में प्रतिबोध देकर प्रवज्या दी, संघ स्थापना और शास्त्र-सर्जन (द्वादशांग का ) भी किया, वही यह स्थल है |

मोरक सन्निवेश - वैशाली के आस-पास का कोई गाँव |

राजगृह - महावीर काल के मगध की सुविख्यात और महान राजधानी थी | वर्तमान मे बिहार प्रान्तवर्ती राजगिर-राजगिरि के आसपास का प्रदेश माना जा सकता है, भगवान के उपदेश, धर्मप्रचार और चातुर्मास रहने का सबसे बड़ा और द्रढ़ केंद्र था | इसके बाहर बहुत से उधान थे, परन्तु भगवान तो गुणशील-गुणशिलक चैत्य नाम के उपधान मे ही ठहरते | यहा अनेक बार उनके समवसरण रचे गए | भगवान ने हजारो को दीक्षा दी | राजा, रानी, राजकुमार, सेनापति आदि अधिकारीवर्ग को तथा लाखों-करोड़ों प्रजाजनों को अपने संघ मे प्रवेश दिया | यह सब इसी नगर में हुआ | भगवान का यह अत्यन्त जोरदार और मजबूत केंद्र था | (चौमासे बारी-बारी से कुल ग्यारह किए )

लाढ - पश्चिम बंगाल का कुछ हिस्सा 'प्रणीत' ,लाढ' अथवा 'राढ' के नाम से प्रसिद्ध था | कल्पसूत्र टीका में इस प्रदेश के लिए 'प्रणीतभूमि' शब्द प्रयोग किया है | इससे अनार्य माने जानेवाले प्रणीत, लाढ अथवा राढ ये नाम एक ही प्रदेश के पास पास के स्थलसूचक है | यह सम्भव है और उसी प्रदेश मे वज्रभूमि और शुद्धभूमि के नाम से प्रसिद्ध पेटा प्रदेश थे | ये प्रदेश भी अनार्य ही थे | भगवान इस धरती पर दो बार आये थे | यहाँ विचरण-विहार किया तब क्रूर और अन्य मनुष्य से सर्वथा असहन्य जैसे भीषण उपसर्गों, कष्टो-परेशनियों को सहन किया था | चौमासा के लिए किसी के द्वारा स्थान ण दिये जाने पर वृक्ष के नीचे ही चौमासा निकालकर उन्होंने तप,ध्यान आदि की साधना की थी | महावीर के समय में यह प्रदेश अनार्य था, परन्तु बाद में साधु-संतों के प्रचार से लोग आर्य जैसे संस्कारी बनने से वह प्रदेश आर्य बना था | इससे आगम मे जहाँ २५||, आर्यदेश की सुची तैयार की है | उसमे उसे 'आर्य' रुप से सूचित किया है | (चौ. ९ वां )

वत्स - उत्तर प्रदेशवर्ती एक देश है | इसकी राजधानी कौशम्बी थी | जो यमुना नदी के किनारे बसी हुई थी | वहाँ का राजा शतनिक और इस का पुत्र उदयन भगवान महावीर के भक्तजन थे |

वाचाला- श्वेताम्बी नगरी के समीप का नगर | भगवान के शेष-आधा देव्दूष्यवस्त्र काँटे मे लग जाने से गिर गया वह घटना यहीं वाचाला के समीप में ही हुई थी | वाचाला के उत्तर-दक्षिण ये दो विभाग होने के कारण वह उत्तर वाचाला और दक्षिण वाचाला के नाम से प्रसिद्ध थे |

वाणिज्यग्राम- वैशाली नगरी के समीप का समृद्ध और प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र | (चौमासे कुल छह किये )

विदेह (जनपद ) देश - गण्डक नदी के समीप का प्रदेश | इसकी राजधानी (महावीर प्रभु के समय पूर्व ) मिथिला थी, जहाँ जनक राजा हुए थे | परन्तु बाद में इस देश की राजधानी वैशाली हो गयी |

वैशाली - यह विदेह देश की सुप्रसिद्ध राजधानी थी | यह नगरी एक इतिहासप्रसिद्ध नगरी थी | यह नगर जैन धर्म का प्रधान केंद्र था और जैनो का काफी बोलबाला था | (चौ. कुल छ्ह किये )

शूलपाणि यक्ष चैत्य - यह चैत्य अस्थिक गाँव की सीमा पर स्थित था | इसी मंदिर में चौमासा करते हुए भगवान को शूलपाणि ने उग्र उपद्रव दिये थे |

श्रावस्ती - कुणाल देश की अथवा उत्तर कोशलदेश की राजधानी | गोशालंक ने तेजीलेश्या नामक दाहक शक्ति का उपद्रव इसी नगर में किया था | आजीव (वि) के संप्रदाय के यह विख्यात केंद्र था | (चौ.१० वां)

सुरभिपुर - विदेह से मगध जाते समय बीच में अवस्थित स्थान |

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