Ep-10: केवलज्ञान
“देवार्य को साधना शुरू किए लगभग साढ़े बारह वर्ष का समय बीत गया था। अब तक उनकी आत्मा पर लगे कर्मों का बड़ा हिस्सा खिर चुका था। देवार्य विहार करते हुए जुंभक गाँव के निकट आए। उस दिन तिथि थी बैसाख सुदि दसमी। उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चंद्रमा का योग हुआ था। झारखंड राज्य के हजारीबाग जिले की वो ऋजुवालिका नामक नदी, जो बराकर के नाम से जानी जाती है, उसके तट पर श्यामाक नामक व्यक्ति के खेत में, शाल वृक्ष के नीचे देवार्य ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुँच गए।
आत्मा अथाह ज्ञान का स्रोत है। जब तक यह ज्ञान कर्मों से आच्छादित है, तब तक आत्मा अज्ञानी रहती है। जब इन कर्मों का जत्था हट जाता है, तब आत्मा के ज्ञान की ऐसी ज्योत प्रकट होती है जो फिर कभी नहीं बुझती, उसको जैन परिभाषा में 'केवलज्ञान' कहते हैं। जब यह केवलज्ञान प्रकट होता है, तब उसके साथ ही अंदर की मन:स्थिति में जो कर्म थोड़ी-सी भी हलचल मचा सकते हैं, वो सारे कर्म खिर जाते हैं। ऐसा केवलज्ञान' देवार्य को प्रकट हुआ। उस समय देवार्य के आसपास सर्जित अमाप तजोवर्तुल से खिंच कर देव और देवराज इन्द्र भी आगए। सामान्य लोग भी इस अद्भुत प्रभाव से खिंचे चले आए। तब भगवान महावीर केवलज्ञान की ज्योति में जो परमसत्य देख रहे थे, वह उन्होंने आने वालों को समझाया। उस दिन से यह दैनिक क्रम बन गया।
भगवान महावीर का जीवन कई विशिष्टताओं से भरा हुआ था। उनमें एक और विशिष्टता यह थी कि उनके केवलज्ञान के बाद के उपदेश को सर्वोत्कृष्ट प्रकार से आत्मसात् करने वाले, उनके पट्टशिष्य के रूप में स्थान प्राप्त करने वाले ग्यारह के ग्यारह व्यक्ति कोई वणिक या क्षत्रिय नहीं, बल्कि ब्राह्मण थे। सरे ग्यारह ब्राह्मण जीवन के साथ संलग्न मूलभूत आत्मा आदि के विषय के प्रश्नों को लेकर भगवान महावीर के साथ चर्चा करने के लिए आए थे। महावीर प्रभु ने उनके हृदय को संतोष हो ऐसा समाधन दिया, जिसके पश्चात् उन सभी ने महावीर प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। यह रोचक बात है कि भगवान महावीर का यह प्रथम उपदेश आज भी २००० से अधिक वर्ष पुराने शास्त्र में संग्रहित उपलब्ध है। ऐसे पट्टशिष्यों को जैन परिभाषा में गणधर” कहा जाता है। इन ११ गणधरों में इन्द्रभूति गौतम स्वामी तथा सुधर्मा स्वामी मुख्य थे।