Ep-11: धर्मबोध
इन ११ पट्टशिष्यों की स्थापना के साथ ही भगवान महावीर ने संपूर्ण जीवन पूर्ण रूप से धर्ममय बिताने की भावना वाले पुरुषों एवं स्त्रियों को पाँच महाव्रतोंवाली दीक्षा प्रदान की। वे साधु और साध्वीजी कहलाए। जिनकी शक्ति इतना ऊँचा जीवन जीने की नहीं थी, उन लोगों ने सच्ची मान्यतापूर्वक, जो स्वयं से पालन किए जा सकें ऐसे एक, दो या अधिक से अधिक बारह व्रत स्वीकार किए, जो छोटे होने के कारण अणुव्रत कहलाते हैं। अणुव्रत स्वीकार करने वाले श्रावक और श्राविका कहलाए। इस प्रकार चार प्रकार के संघ की स्थापना हुई। भगवान महावीर ने इस धर्म के लिए जो ढाँचा स्थापित किया था, उसे जैन परिभाषा में 'तीर्थ! कहते हैं और ऐसे तीर्थ के स्थापक मतलब "“तीर्थकर!।
जैनधर्म की यह खूबी है कि इसके स्वीकार की योग्यता का मापदंड मात्र और मात्र गुणवत्ता के आधार पर है। जिसमें जितनी गुणवत्ता विकसित हो सकती है, उसको विकसित होने के लिए मुक्त अवकाश जैनधर्म ने दिया है। इसीलिए महावीर प्रभु द्वारा धर्मतीर्थ की स्थापना के साथ ही उसमें साध्वीसंघ की भी स्थापना हुई थी। यह व्यवस्था आज तक अचल रूप से चली आ रही है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान महावीर तत्कालीन मगध आदि देशों में विचरण कर रहे थे। अनेकानेक राजा, राजकुमार, श्रेष्ठी, श्रेष्ठीपुत्र, रानियां, राजकुमारियां आदि ने उनके उपदेश से प्रतिबोध को प्राप्त कर संन्यास (साधु धर्म) का स्वीकार किया था।
भगवान महावीर के भक्त राजाओं में मगधराज श्रेणिक, उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत, वैशाली के राजा चेटक आदि नामों की गणना की जा सकती है।हालांकि भगवान महावीर का उपदेश सामान्य जनता के लिए भी हृदयस्पर्शी बनता था। इसमें एक कारण यह भी था कि भगवान अर्थमागधी प्राकृत भाषा में उपदेश देते थे, जो सभी को आसानी से समझ में आ जाती थी। इसलिए महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेने वालों में लकड़हारे जैसे लोग भी थे और आगे बढ़ कर रोहिणिया चोर जैसे पहले कुख्यात और फिर विख्यात बनने वाले चोर भी थे। लगभग तीस वर्ष तक महावीर प्रभु ने उपदेश फरमाया।