Ep-12: निर्वाण
महावीर प्रभु के जीवन का ७२वाँ वर्ष आया। अंतिम चार महीनों का विराम (चौमासा) अपापापुरी नगरी के हस्तिपाल राजा के खाली पड़े लिपिकों (क्लकों) के कार्यालय में था। प्रतिदिन उपदेश की धारा बह रही थी। उसमें आश्विन वदि चतुर्दशी की तिथि आई। प्रतिदिन कुछ ही घण्टे चलने वाली उपदेश धारा उस दिन लगातार चली। यह उपदेशधारा यावत् आश्विन वदि अमावस्या की देर रात तक यानी लगातार ४८ घंटों तक चलती रही। इस उपदेश धारा में भगवान ने जो उपदेश दिए, उनमें से कई उपदेश आज भी उत्तराध्ययन सूत्र नामक जैन आगम में संग्रहित मिलते हैं।
अब इस शरीर के बंधन से भी मुक्त होने की घड़ी निकट आ गई थी। अपनी इन अंतिम घड़ियों में, उनके प्रति तीव्र अनुराग वाले पट्टशिष्य गौतम स्वामी को प्रभु ने एक ब्राह्मण को प्रतिबोध करने के लिए भेज दिया था। गौतम स्वामी की आत्मा को इसी से अधिक लाभ होगा, भगवान ने यह अपने ज्ञान में देखा था।अंतिम समय में महावीर प्रभु पर्यकासन नामक आसनमुद्रा में थे। प्रभु ध्यान के सर्वोच्च शिखरों को पार कर धीरे-धीरे एक के बाद एक स्थूल एवं सूक्ष्म शारीरिक स्पंदनों को बंद करते गए। जब लगभग चार घड़ी-९६ मिनट रात शेष थी, तब एक ओर शरीर के साथ का जुड़ाव टूटा और दूसरी ओर आत्मा ने अपने मूल स्वरूप को प्राप्त किया। सभी कार्य पूर्ण हो जाने के कारण भगवान की आत्मा अब 'सिद्ध' के रूप में पहचानी गई।
भगवान का सदेह अस्तित्व पूर्ण हुआ। भगवान के पार्थिव देह को वहाँ उपस्थित सभी ने भक्ति की अंजलि अर्पण करी और उसका अग्नि संस्कार किया गया। 'ऐसा ज्ञान का तेज बहाने वाले अब पुन: नहीं मिलेंगे'; इस बात के शोक से ग्रस्त उस समय के नौ मललकी जाति के राजाओं और नौ लिच्छवी जाति के राजाओं ने ज्ञान देने वाले प्रकाश पुंज चले गए, तो उनकी स्मृति में दीये प्रज्वलित कर उजाला किया। जैनशासन के अनुसार 'दिवाली' तब से शुरु हुई। देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देकर लौट रहे गौतम स्वामी को रास्ते में यह समाचार मिले। वो असहा आघात में डूब गए।
मेरे प्रभु ने अंतिम समय में मुझे दूर कर दिया?” जब वो इन विचारों के माध्यम से भगवान के निर्णय के मर्म को समझ सके, तब उन्होंने अपने एकपक्षीय स्नेह को तिलांजलि दे दी, परिणाम स्वरूप उसी क्षण उनको केवलज्ञान हो गया और आनंद मंगल छा गया। आज इस घटना को घटे २५५० वर्ष बीत गए हैं, परंतु एक अच्छे जैनेतर चिंतक लिखते हैं कि : “जब तक पृथ्वी पर एक भी मानव श्वास लेता रहेगा, तब तक महावीर प्रभु द्वारा बहाई गई ज्ञानगंगा मानवयात्रा के ऊर्ध्वा-रोहण के लिए पाथेयरूप बनी रहेगी।”