Ep-5: यौवनवय
महावीर प्रभु जब से गर्भ में आए थे तब से वो अध्यात्म से ओतप्रोत थे। उनकी आत्मा,उनका मन,उनकी विचारधारा, इस बाह्म जगत से बहुत अलग थी। उनके माता-पिता को इस बात की जानकारी थी। इसलिए विवाह के योग्यवय हो जाने के बाद भी पुत्र से विवाह की बात किस प्रकार करें? यह उनकी एक बड़ी उलझन थी।
तभी एक दिन समरवीर नामक राजा ने वर्धमान कुमार के साथअपनी बेटी यशोदा के विवाह का प्रस्ताव सिद्धार्थ राजा को भेजा। उनके मंत्रियों ने आकर सिद्धार्थ राजा से इस प्रस्ताव का निवेदन किया। तब माता त्रिशला का हृदय बेटे का विवाह करने के लिए अत्यंत उत्सुक हो गया। माता समझदार थीं। उन्होंने पुत्र को सीथे-सीधे आज्ञा देने के बदले मित्रों को समझा कर वर्थमान कुमार के पास भैजा। माता ने सोचा कि यदि इस तरीके से बेटा तैयार हो जाए, तो काम आसानी से हो जाएगा।
मित्रों ने जब यह बात करी तब वर्धमान कुमार ने धीर-गंभीर वाणी में उनको समझाया : “मित्रों! हमारा जीवन तो घास की नोक पर पड़ी ओस की बूंद जैसा चंचल है। हवा का एक झोंका आएगा और उस बिंदु की तरह हमारा जीवन भी है” से था! हो जाएगा। मैं तो कब से गृहत्याग के लिए उत्सुक हूँ, परंतु माता-पिता की ममता ऐसी है कि मेरा यह निर्णय उनके लिए असहा हो जाएगा, इसी विचार से मैं रुका हुआ हूँ।”
इन सब बातों में थोड़ी देर लगी तो परिस्थिति का अनुमान लगा कर माता त्रिशला स्वयं वर्धमान कुमार और उनकी मित्रमंडली के बीच पहुंच गईं। वर्धमान कुमार ने माता को सिंहासन पर बैठा कर हाथ जोड़ कर कहा: “माताजी! आप स्वयं क्यों पधारे? मुझे बुलवा लिया होता तो मैं आ जाता। ” फिर वहां उस मुद्दे पर चर्चा चालू हुई। अंततः माता ने कहा,“बेटा! मेरी खातिर तू विवाह के लिए हाँ कह दे न!” वर्धमान कुमार ने देखा कि कर्म की लीला अकल है। माता का भी अत्यंत आग्रह था। अतः वर्धमान कुमार ने सोचा कि अपने अंतिम लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए मैं एक बार विवाह के लिए सहमति दे देता हूँ। वर्धमान कुमार की मौन सहमति मिलते ही समग्र क्षत्रियकुंड नगर को आनंद प्रदान हो ऐसा विवाहोत्सव आयोजित हुआ।