Ep-9: दूसरा साधनाकाल
जैन शास्त्र ऐसा कहते हैं कि वैश्विक नियम उन्हें ही कहा जाता है, जो सब पर लागू पड़ते हों। भगवान बनने वाली आत्माएं भी उन नियमों से मुक्त नहीं होती हैं। पाप करने के कारण आत्मा पर चिपके हुए कर्म को यदि प्रायश्चित आदि से कमजोर नहीं किया जाए, तो सबको उनका फल भोगना ही पड़ता है; फिर चाहे वह भगवान की आत्माहो तो भी। देवार्य को भी अपने साढ़े बारह वर्षों में पुराने कर्मों के कारण बहुत से बाहा कष्ट आए, परंतु देवार्य के जीवन का कमाल यह था कि उनमें से एक भी कष्ट उनके मेरु पर्वत समान अचल मन को विचलित नहीं कर सका।
“बाह्य किसी भी परिस्थिति के सामने संघर्ष नहीं, बल्कि उसका सहज स्वीकार और अंदर की मनःस्थिति को ऊँचा ले जाने के लिए साथना। ' देवार्य का यह सूत्र था। शरीर को टिकाने के लिए जब अनिवार्य होता वो तभी पारणा करते थे तथा पारणे के दिन भी दिन में मात्र एक ही बार देवार्य गोचरी (भिक्षा भोजन) लेते थे। उसमें कभी ग्वालन के घर भी खीर जैसा उत्तम भोजन मिल जाता था तो कभी सेठ के घर भी मात्र उड़द के बाकुले ही मिलते थे। जहाँ जो मिला यदि वो उनकी साधना में बाधक न हो,तो सब कुछ देवार्य को स्वीकार्य था।
एक आश्चर्यजनक घटना बनी। इस घटना में देवार्य के शरीर को सर्वाधिक कष्ट पड़ा था हालांकि उस कष्ट में निमित्त बनने वालों के हृदय की भावना अच्छी थी। घटना कुछ ऐसी बनी कि एक ग्वाले ने ध्यान में खड़े देवार्य को अपने बैलों का ध्यान रखने के लिए कहा और ग्वाला कहीं चला गया। देवार्य तो अपने ध्यान में थे, बैलों का ध्यान कौन रखता? वो चलते-चलते वन में चले गए। ग्वाला अपना काम पूरा करके वापस आया। उसने देवार्य से पूछा : “कहाँ है मेरे बैल?” उत्तर कौन देता? ग्वाले के सिर पर क्रोध सवार हो गया, “तेरे कान हैं या गुफा के गड्ढे?” ऐसे क्रोधपूर्ण शब्दों के साथ उसने दो शूल (लकड़ी के खीले) देवार्य के दोनों कानों में घुसा दिए और बाहर काभाग काट दिया।
देवार्य एक वणिक के यहाँ गोचरी के लिए गए।वणिक केघर पर वणिक का एक मित्र वैद्य भी हाजिर था। उसको देवार्य का चेहरा देखते ही भीतर रहे हुए शल्य का अंदाज आ गया। देवार्य तो गोचरी ले कर निकल गए। वैद्य ने मित्र से बात की। दोनों उद्यान में जहाँ देवार्य थे वहां पहुंचे। देवार्य के शरीर का शल्य दूर करने के शुभभाव से दोनों ने जरूरी प्रक्रिया की और वो शूल खींचकर निकाले। उस क्षण देवार्य के शरीर को अपार कष्ट हुआ। मानो पीड़ा के कारण जैसे वेदना की ही चीख निकल गई। बस, यहाँ कष्टों की पराकाष्ठा और अंत दोनों थे।