Ep-7: भगवान श्री महावीर का दिर्घ और महान तप, उसका सामय एवं स्थान आदि
स्वर्ण की शुद्धि जिस प्रकार अग्नि से होती है उसी प्रकार आत्मा की श्रेष्ठ और आत्यन्तिक शुद्धि क्षमा-भावनायुक्त तपश्चरण-तपश्चर्या रूपी अग्नि के द्वारा होती है। इस शुद्धि को भावशुद्धि कहा जाता है। परन्तु इस शुद्धि के लिए प्रथम बाह्यशुद्धि की आवश्यकता है। उसकी शुद्धि से शरीर स्वस्थ, शान्त और स्थिर होता है और मन भी कुछ अंश तक निर्मल होता है। यह बाह्यशुद्धि भाव शुद्धि के लिए कारणभूत है। दूसरे शब्दों में बाह्यशुद्धि साधना है, और भावशुद्धि उसका साध्य है। साधना की जितनी शुद्धि होगी उतनी ही साध्य की शुद्धि श्रेष्ठ होती है।
उक्त दोनों प्रकार की शुद्धि के लिए जैन-शास्त्रों में बाह्य और आभ्यंतर दो प्रकार का तप बताया गया है।
सामान्य रूप से बाह्यशुद्धि के लिए बाह्य तप का और आभ्यंतर की शुद्धि के लिए आभ्यंतर तप का प्राधान्य है।
बाह्य तप के अंतर्गत:
जबकि आभ्यंतर तप में:
1) प्रायश्चित 2) विनय 3) वैयावृत्य 4) स्वाध्याय 5) ध्यान 6) उत्सर्ग
यह छः प्रकार का है। आन्तरिक जीवन की शुद्धि द्वारा मोक्षमार्ग में बाधक इंद्रियों के विकार-वासनाओं का शमन होता है। मन की चंचलता तथा तृष्णा का ह्रास तथा घातक [आत्मगुण के नाशक] कर्मों का क्षय होता है। इसलिए ज्ञान और विवेकयुक्त ऐसा बाह्य तप की उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए। यह तप आभ्यंतर तप की अनिवार्य साधना है। और अनिकचित अथवा निकचित कोटि के पुरातन से लेकर विद्यमान अघातक कोटि के कर्मों की निर्जरा-क्षय करके, आत्मिक शुद्धि-विशुद्धि प्राप्त कर मोक्ष प्राप्ति हो, इसलिए आभ्यंतर तप करना उससे भी अधिक आवश्यक है। भगवान का दोनों प्रकार का तप किस प्रकार समानांतर रूप से चल रहा था, उसकी झांकी नीचे दी गई तालिका से होगी।
यहां दी हुई तप तालिका में तीन, अढी, डेढ़ मासी, आदि की सूची दी नहीं है।
समय | तप | स्थान | पारण स्थल | किसने करवाया? | किससे? |
---|---|---|---|---|---|
दीक्षा के समय | छठ (दो उपवास) | क्षत्रियकुंड | कोल्लाक | बहुल ब्राह्मण ने(ग्रहस्थ पात्र मे किया)_ | परमात्रक्षीर से |
चौमासा १ | पासक्षमण (पंद्रह उपवास) | मोरक में-१ अस्थिक में-७ |
--- | --- | (घृत, शक्कर, दूध मिश्रित चावल ) |
चौमासा के बाद | पासक्षमण | कनकखल आश्रम | उत्तर वाचला | नागसेन ने | क्षीर से |
चौमासा २ | मासक्षमण १ | नालंदा | नालंदा | विजय श्रेष्ठी ने | कूरादी से |
मासक्षमण २ | नालंदा | नालंदा | आनंद ने | पके हुए अनाज से | |
चौमासा के बाद | मासक्षमण ३ | "" | "" | सुनंदा ने | क्षीर से |
मासक्षमण ४ | "" | कोल्लाक | बहुला ब्राह्मणे | क्षीर से | |
छठ | ब्राह्मण | --- | नंदे | दही मिश्रित भात से | |
चौमास ३ | २ मासक्षमण | चंपा | चंपा में | --- | --- |
२ मासक्षमण | चंपा | गाँव के बाहर | --- | --- | |
चौमास ४ | चार मासी | पृष्टचम्पा | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास ५ | चार मासी | भद्रिका | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास ६ | चार मासी | भद्रिका | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास ७ | चार मासी | आलंभिका | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास ८ | विविध अभिग्रहों के साथ | राजगृह | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास ९ | चार मासी | वजभूमि | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास १० | विविध तपयुक्त | श्रावस्ती | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास १० | विविध तपयुक्त | श्रावस्ती | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमासा बाद | भद्रा महाभद्र और भद्रा प्रतिमा | सानूलब्धिक | सानूलब्धिक | बहुलदासी (आनंद के घर) | बिरंज से (शक्कर मिश्रित चावल) |
[दो चार और दस उपवास से] | --- | --- | --- | --- | |
चौमास के बाद | ६ महीने का उपवास (संगम के कारण) | पिढाल | --- | वत्सपालिका (गोपालन) | दूध से |
चौमास ११ | चार मास | वैशाली | वैशाली | दासी के हाथों (अभिनव सेठ के घर) | उड़द बाकुला से |
चौमास के बाद | ५ महीने-२५ दिन (अभिग्रह के कारण) | कौशाम्बी | कौशाम्बी | चंदनबाला के हाथों (धनावह सेठ के यहाँ) | उड़द बाकुला से |
चौमास १२ | चार मास | चम्पा | गाँव के बाहर | --- | --- |
चौमास १३ | छठ (दो उपवास) | पावापुरी (निर्वाण के समय) | गाँव के बाहर | --- | --- |
1. दीक्षा, केवल और मोक्ष ये तीनों ही कल्याणक के समय पर छट्ठ (दो उपवास) होते है | इसमें एक उपवास अगले दिन होता है और दूसरे उपवास पर कल्याणक होता है |
2. साधु पात्र रखे तो भी उसे धर्म हो सकता है, यह बताने के लिए प्रथम पारणा गृहस्थ दत्त पात्र मे और गृहस्थ के यहाँ किया | क्योंकि भगवान तो अपात्री ही थे, इसलिये उनके पास पात्र या भोजन था ही नहीं | क्षीरसे-शक्कर दूध मिश्रित भात |
3. तीर्थंकर का जहा पारणा हो, वहाँ देव आकाश मे से सुगन्धित जल, वस्त्र और लाखो करोडों सोना-मुहरों की वृष्टि इत्यादि पंचदिव्य द्वारा दान की महिमा प्रकट करते है |
4. 'मासक्षमण' यह संस्कृत शब्द है और 'मासखमण' यह प्राकृत शब्द है |
5. एक साथ होने वाले पन्द्रह दिन के उपवास को पास-पक्ष क्षमण, महीने तक के उपवास को मासक्षमण, दो महीने
तक के उपवास को द्विमासी और एक ही साथ चार महीने केउपवास के उपवास किए जाए तो उसे चारमसी, इस प्रकार परिभाषा समझनी चाहिए |
A) तप साधना के १२ वर्ष और १५ दिन के अंतर्गत भगवान आसान लगाकर बैठे अथवा सोये नहीं थे | हो सका वहा
तक खड़े रहकर साधना की थी | कभी बैठे भी तो (प्रायः) उकड़ू बैठे है |
B) १२ वर्ष और ६ महीने के ४५१५ दिनों मे (बीच-बीच) मात्र ३४९ दिन ही आहार ग्रहण किया था | अन्य ४९६६ दिन
अन्न-जल रहित उपवास किए थे |
C) उसी भव में मोक्ष प्राप्ति निश्चित होने पर उपवास कायक्लेश ध्यानादि बाह्यतप अत्यन्त उच्चकोटि का किया |
यह आचरण बाह्यतप की भी मोक्ष के पुरुषार्थ हेतु असाधारण आवयशकता है,
इसका प्रजा को स्पष्ट निर्देश दिया |
D) परिषहों और उपसर्गों के सहने से भगवान महावीर की दीर्घकालीन तपश्चर्या के कारण जैन-अजैन ग्रंथकारों ने
उन्हे 'दीर्घ तपस्वी' इस विशेषण से सम्मानित किया है |
E) तप के आचरण मे जैन संघ के साथ कोई समाज-सम्प्रदाय मुक़ाबला नहीं कर सकता | जैन संघ मे बालक से
लेकर वृद्धों तक से उत्साह पूर्वक होने वाली उपवासादि की तपश्चर्या यह जैन संघ का चमकता हुआ एक
अप्रतिम प्रभावशाली तेजस्वी अंग है, और इसलिये जैन शासन गौरवान्वित है |
F) तप करने की विधि और उसका महत्व वैदिक और बोद्ध ग्रन्थों में अनेक स्थलो पर महत्वपूर्ण ढंग से बताया
गया है | अन्तर इतना ही है कि जैनियो ने गंभीरता और विवेकपूर्वक उस तप को क्लिष्ट स्वरूप में और व्यापक
प्रमाण में आचरण में लाकर उस परम्परा को अविच्छित्र रूप से बनाये रखा है |